Tuesday, July 9, 2013

सिनेमा बिना हम अधूरे ...

-सौम्या अपराजिता 
प्रतिष्ठित विज्ञापन कंपनी की बागडोर  की जिम्मेदारी के साथ-साथ प्रसून जोशी हिंदी फिल्मों में भी अपना रचनात्मक योगदान देते रहते हैं। उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का ताज़ा उदहारण है 'भाग मिल्खा भाग'। प्रसून जोशी ने ' भाग मिल्खा भाग' के कांसेप्ट की नींव रखी और फिर मिल्खा सिंह के जीवन की प्रेरणादायी कहानी को पन्नों पर उतारा है। साथ ही उन्होंने राकेश ओम प्रकाश मेहरा निर्देशित इस फिल्म को अपने सार्थक,सरल और सहज गीतों से भी सजाया है। लेखक-गीतकार प्रसून जोशी से बातचीत- 


'भाग मिल्खा भाग' के निर्माण की योजना कैसे बनी? एक लेखक के रूप में आपके सामने किस तरह की चुनौतियाँ थीं?
-मैंने 'भाग मिल्खा भाग' का सब्जेक्ट खुद चुना था। मुझे यह कहने का अधिकार नहीं है कि बहुत चुनौतियाँ थीं। सोच-समझकर ही मैंने ये प्रोजेक्ट लिया था।मैं ये चाहता था कि मिल्खा सिंह के बारे में जो बातें लोग नहीं जानते उन्हें उन बातों परिचित कराना है।उनके व्यक्तित्व के  भावनात्मक पहलू और एक खिलाडी के पीछे के इंसान से दर्शकों को परिचित करना मेरा लक्ष्य था । उसके लिए मैंने कुछ रिसर्च किया,मिल्खा सिंह से मिला,कुछ कल्पना का सहारा लिया,चरित्रों को समझा ...और फिर कहानी तैयार की जो उनकी जिन्दगी से प्रेरित है। फिर उसे पटकथा का रूप दिया। कह सकता हूं कि यह एक सफ़र था जिसमें बहुत कुछ बताने को मिला , बहुत कुछ सीखने को मिला। हर वह प्रोजेक्ट करने में मुझे अच्छा लगता है जिसमें मुझे कुछ सीखने को मिलता है। कहने को तो मिल्खा सिंह एक स्पोर्ट्स मैन हैं,पर आप भी उस व्यक्ति की लाइफ से प्रेरित हो सकते है। उनकी  लाइफ इतनी प्रेरणादायक है कि हर व्यक्ति उनसे प्रेरणा ले सकता है चाहे वह स्पोर्ट्स मैन  हो या नहीं हो।

किसी लोकप्रिय शख्सियत की जीवनगाथा को पन्नों पर उतारने की अपनी मुश्किलें होती होंगी ....!
-उनका पूरा जीवन मैं इस कहानी में नहीं दिखा रहा हूं। जब तक वे खिलाडी थे तभी तक की हमारी कहानी है। उसके बाद का जो  उनका जीवन है ....वह बहुत खूबसूरत है ..उनकी पत्नी हैं,उनके बच्चे हैं ....पर मैं उस तरफ नहीं गया हूं। वह इस फिल्म का उद्देश्य नहीं था। इस फिल्म का उद्देश्य उनके स्पोर्ट्स मैन बनने के पीछे की साधना और उनके जीवन के भावनात्मक पहलू को उजागर करना था। मेरी उसी में रुचि थी। हर लेखक अपनी तरह से फिल्म को अप्रोच करता है। मुझे इस सब्जेक्ट में रुचि यही सोचकर आई थी कि मैं मिल्खा सिंह के भावनात्मक पहलू को समझूंगा। ...तो यह उनकी बायोग्राफी नहीं है। यह उनके जीवन से प्रेरित फिल्म है जिसमें लोगों को उनके जीवन की झलक मिलेगी,समझ मिलेगी और साथ-साथ उनसे कुछ सीखने को मिलेगा।

'भाग मिल्खा भाग' के आईडिया से फिल्म पूरी होने तक का सफ़र कैसा रहा? आपने फिल्म देखी होगी?
-अभी फिल्म पूरी नहीं हुई है। मैंने अभी देखी  नहीं है। फिल्म को लिखने का अपना अनुभव होता है।स्क्रिप्ट लिख कर मैंने राकेश मेहरा जी को दे दी। शूटिंग के दौरान भी राकेश मेहरा जी से मैं मिलता था। तो पूरी फिल्म के दौरान हमारी पार्टनरशिप रही जो बहुत अच्छी रही। उसके बाद वे फिल्म की शूटिंग में व्यस्त हो गए और मैं गीत लिखने में व्यस्त हो गया। ...तो इस तरह तीन साल का लम्बा सफर रहा है ये जिसमें मैं,राकेश जी,फरहान अख्तर और फिल्म से जुड़े जितने कलाकार हैं ...सोनम और योगराज सिंह ...सबने अपनी भूमिका निभाई है। मिल्खा सिंह जी का आशीर्वाद जरूरी था। कुल मिलकर मेरे लिए अभूतपूर्व अनुभव रहा है। मुझे उम्मीद है कि फिल्म की मेकिंग के दौरान जो ऊर्जा मुझमें थी वह लोगों में भी रहे फिल्म देखने के दौरान।

कलाकारों के चयन में भी आपका कोई योगदान था? मिल्खा सिंह के कैरेक्टर के लिए फरहान अख्तर का चयन कैसे हुआ?
-कैरेक्टर को चुनना बड़ी चुनौती होती है। कोई कलाकार किसी रोल में ऐसा लगता है कि वह उसके लिए ही बनाया गया हो तो आप फरहान अख्तर ऐसा लगता है कि वे इसी रोल के लिए बनाए गए हैं। उनसे बेहतर कोई नहीं मिल सकता था हमें। कहना चाहिए कि यह हमारा सौभाग्य था कि फरहान का चयन मिल्खा सिंह के कैरेक्टर के लिए हुआ।

हिंदी फिल्मों ने सौ साल का सफ़र तय कर लिया है। लेखक और रचनाशील व्यक्ति के रूप में इस सफ़र को कैसे देखते हैं?
-हिंदी सिनेमा के बिना इस देश की कल्पना करना मुश्किल है। यह सच है कि जब सिनेमा नहीं था तब भी हमारा देश था। ...पर पिछले सौ साल में सिनेमा से हमारे जीवन का इस कदर ताना-बाना जुड़ गया है कि ऐसा लगता है कि सिनेमा बिना हम अधूरे हैं। हिंदी सिनेमा ने इस पूरे सफ़र में कई तरह के उतार-चढ़ाव देखें हैं। हर दौर से गुजरा है। मैं खुश और गौरवान्वित हूं कि मैं सिनेमा की इस समृद्ध संस्कृति का हिस्सा हूं।

लेकिन ...आपको नहीं लगता कि हिंदी  सिनेमा के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में व्यावसायिकता रचनात्मकता पर हावी हो रही है?
-सिनेमा व्यवसाय भी है। ..वर्ना लाखों लोगों की रोजी-रोटी कैसे चलेगी? कहते हैं न कि 'भूखे भजन न होई गोपाला'। हाँ ..यह सच है कि सिनेमा पहले कला है ..बाद में व्यवसाय। ..पर मैं वर्तमान स्थिति से चिंतित नहीं हूं क्योंकि कुछ लोगों को इस बात की चिंता है कि व्यावसायिकता कलात्मकता पर हावी हो रही है। जब तक यह चिंता बरकरार है तब तक घबराने की जरूरत नहीं है। ..लेकिन जब लोग इस बात की चिंता ही नहीं करेंगे तब मैं हिंदी सिनेमा के भविष्य को लेकर चिंतित हो जाऊंगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज कई ऐसी फ़िल्में बनती हैं जो कला नहीं,बल्कि सिर्फ व्यवसायिक लाभ के लिए बनायी जाती हैं। उन फिल्मों का कला से कोई लेना-देना नहीं होता है। हालांकि, कई ऐसी फ़िल्में भी बनती हैं जिसमें कला और व्यवसाय का संतुलन देखने को मिलता है। मुझे लगता है कि हिंदी सिनेमा में कला और व्यवसाय का संतुलन होना जरुरी है। यह संतुलन ही हमारी इंडस्ट्री के भविष्य को बना सकता है।



No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है...