Saturday, June 1, 2013

फिल्मों के निराले शीर्षक ....

-सौम्या अपराजिता 

शीर्षक फिल्म विशेष का प्रारंभिक परिचय होता हैं। शीर्षक से फिल्म के कथ्य का अनुमान लगाया जा सकता है। शीर्षक दर्शकों को फिल्म देखने के लिए सिनेमाघरों में खींच सकती है। यदि कहें कि शीर्षक फिल्म की जान और शान होता  है,तो गलत नहीं होगा। सिनेमा के सौ वर्ष के सफ़र में फिल्म के शीर्षक को लेकर हमेशा प्रयोग होते रहे हैं। कुछ  शीर्षक ऐसे हैं जो बार-बार प्रयोग किये गए हैं,तो कुछ शीर्षक लोकप्रिय गीतों की पंक्तियों से चुरा लिए गए हैं,तो कभी अंग्रेजी शब्दों को शीर्षक में उढ़ेल दिया जाता है। इन दिनों निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्मों के शीर्षक के लिए अनूठे और रोचक शब्द ढूंढ रहे हैं जो फिल्म के प्रति दर्शकों में उत्सुकता पैदा कर सकें। 'देल्ही बेली','बर्फी','राउडी राठोड़', 'काई पो छे' ...ऐसे ही कुछ अनूठे शीर्षक हैं। आने वाले दिनों में भी निराले शीर्षक वाली और भी फ़िल्में सिनेमाघरों में दस्तक देंगी जिनमें 'फुकरे', 'बुलेट राजा',' रैम्बो राजकुमार', 'रिवाल्वर रानी' उल्लेखनीय हैं।
शीर्षक फिल्म की आत्मा को बयां करता है ऐसे में  आवश्यक है कि शीर्षक का चुनाव सावधानी से किया जाय। शीर्षक में नयापन और आकर्षण होना चाहिए जो दर्शकों को फिल्म के प्रति उत्साहित कर सके। साथ ही,फिल्मों के शीर्षक ऐसे होने चाहिए जो आम आदमी के लिए ग्राह्य हो। अर्थात शीर्षक का शाब्दिक अर्थ जानने के लिए दर्शकों को शब्दकोष का सहारा नहीं लेना पड़े। यही वजह है कि पहले कभी अँग्रेजी शीर्षक वाली हिन्दी फिल्म असफल होती थी तो फिल्म के शीर्षक  को भी दोषी ठहराया जाता था। कहा जाता था कि एक ग्रामीण दर्शक फिल्म का शीर्षक  ही नहीं समझ पाया तो फिल्म देखने क्या जाएगा। अब जमाना मल्टीप्लेक्स का है। इसलिए हिन्दी नामों में अँग्रेजी की घुसपैठ हो गई है ...और राऊडी राठोड,रिवोल्वर रानी,रैम्बो राजकुमार और बुलेट राजा जैसे शीर्षक वाली फ़िल्में बनने लगी हैं। रचनात्मक और बोलचाल में इस्तेमाल होने वाले शब्दों से बने ये  शीर्षक दर्शकों को लुभा भी रहे हैं। अंग्रेजी और हिंदी शब्दों को जोड़कर रखे गए ये शीर्षक फिल्म के प्रति दर्शकों को उत्साहित कर  रहे हैं। गौर करें तो  संजय लीला भंसाली निर्मित फिल्म 'राउडी राठौर' की सफलता के बाद ऐसे शीर्षकों के प्रति निर्माता-निर्देशक आकर्षित हुए हैं। संजय लीला भंसाली कहते हैं,'मैं खुश हूं कि निर्देशक इस तरह के शीर्षक प्रयोग कर  रहे हैं। ऐसे शीर्षक में कुछ भी अजीब नहीं है।लोग फिल्म के ऐसे नाम पर पूरे उत्साह के साथ टूट पड़ते हैं।' बुलेट राजा' के निर्देशक तिग्मांशु धुलिया भी संजय लीला भंसाली से इत्तेफाक रखते हैं। वे कहते हैं,'मुझे मारधाड़ पसंद है इसलिए मैंने अपनी फिल्म का नाम ' बुलेट राजा' रखा है। मेरी फिल्म का शीर्षक मेरे फिल्म के कथ्य को दर्शकों के सामने रखता है।'' उल्लेखनीय है कि बुलेट राजा' में सोनाक्षी सिन्हा और सैफ अली खान मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। कंगना रानौत अभिनीत 'रिवॉल्वर रानी' और शाहिद कपूर अभिनीत' रैम्बो राजकुमार' हिंदी-अंग्रेजी शब्दों के संगम वाले अनूठे शीर्षकों के ट्रेंड को आगे बढ़ाने के लिए जल्द ही सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी।


फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी निर्मित नयी फिल्म का शीर्षक 'फुकरे' बेहद अनूठा है। हालाँकि दिल्ली में निकम्मे और निठल्ले लड़कों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द फुकरे को फरहान और रितेश ने अपनी फिल्म का शीर्षक तो बना लिया,पर अब फिल्म के प्रदर्शन से पूर्व उस शीर्षक से पूरे देश को परिचित कराने की चुनौती उनके सामने है।यही वजह है कि 'फुकरे' के प्रचार अभियान के लिए एक जिंगल तैयार किया गया है जो 'फुकरे' के अर्थ को रोचक अंदाज़ में दर्शकों से परिचित कराएगा। यहाँ उल्लेखनीय है कि निर्माता-निर्देशक सोच-समझकर भी अपनी फिल्मों का शीर्षक कुछ ऐसा रखते हैं जिसके आधार पर वे अपने  फिल्म के प्रचार अभियान को एक अलग दिशा दे सकें। ऐसा ही 'फुकरे' के साथ हो रहा है। फिल्म का प्रचार कलाकारों या कहानी के नहीं,बल्कि फिल्म के शीर्षक के इर्द-गिर्द हो रहा है। हालिया प्रदर्शित 'औरंगजेब' के शीर्षक से कई दर्शकों ने फिल्म के मुग़ल बादशाह औरंगजेब से जुडा होने का अनुमान लगाया जो बाद में गलत साबित हुआ। 'औरंगजेब' के निर्देशक अतुल सबरवाल ने बताया,'औरंगजेब' शीर्षक हमारी फिल्म के सभी पात्रों की सोच से जुदा हुआ है। मुग़ल बादशाह औरंगजेब की जो एम्बिशन थी ..उसकी जो ग्रीड थी ..उसका आज के जमाने में बेहद महत्त्व है। जिस तरह से वे सब कुछ पाना चाहते थे। सब कुछ पाने  के चक्कर में वे अपनों को खोते गए।  मुग़ल सियासत उनके जरिये ही नीचे आ गयी। ...तो हमारी फिल्म में भी औरंगजेब के पॉवर के संघर्ष और उसके खोने  की कहानी को मॉडर्न  अंदाज में कहा गया  है।' गौरतलब है कि 'औरंगजेब' के प्रचार-अभियान के दौरान कलाकारों और निर्देशकों ने ध्यान रखा कि फिल्म के शीर्षक 'औरंगजेब' का फिल्म में प्रतीकात्मक प्रयोग का जिक्र करने के बाद ही आपनी बात सबके सामने रखी जाय। अतः 'औरंगजेब' के प्रचारअभियान  में शीर्षक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 

अनूठे और निराले शीर्षक फिल्म के प्रचार अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभाते हैं,पर फिल्म की सफलता की गारंटी नहीं होते हैं। वर्ष की शुरुआत में प्रदर्शित हुई 'मटरू की बिजली का मंडोला' अपने अनोखे शीर्षक के कारण प्रारंभ में दर्शकों का ध्यान अपनी और खींच पायी। हालाँकि, फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई और बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुहं गिर गयी। दूसरी तरफ 'काय पो छे' शीर्षक दर्शकों को उत्साहित नहीं कर पाया,पर फिल्म की कहानी और कलाकारों का अभिनय दर्शकों को भा गया। अतः ..जरूरी नहीं है कि फिल्म की सफलता या असफलता सिर्फ फिल्मों के अनूठे और अजाब-गज़ब शीर्षक पर निर्भर करती है। हाँ ...अच्छे और अनूठे शीर्षक दर्शकों को फिल्म के प्रति उत्साहित जरूर करते हैं ...जैसे 'बर्फी'। अच्छी पटकथा,सुघड़ निर्देशन और रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा की आकर्षक मौजूदगी के साथ ही 'बर्फी' शीर्षक भी फिल्म की सफलता का साझेदार रहा है। अनुराग बसु निर्देशित इस  फिल्म को देखने दर्शक जब सिनेमाघरों में गएँ तो उन्हें लगा कि उत्तर भारत की मशहूर मिठाई बर्फी का फिल्म में विशेष उल्लेख होगा,पर जब उन्हें पता चला कि नायिका द्वारा नायक मर्फी का नाम बर्फी उच्चारण किये जाने की वजह से ही फिल्म का शीर्षक 'बर्फी' रखा गया है तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ।' बर्फी' शीर्षक ने फिल्म में अपनी उपयोगिता साबित की जिसे दर्शकों ने पसंद किया और सराहा।
शीर्षक में अनूठापन होना अच्छी बात है,पर उसका फिल्म के कथ्य से तालमेल भी होना चाहिए ...तभी वह सार्थक होगा और फिल्म के प्रदर्शन के बाद भी दर्शकों की यादों में हमेशा के लिए बस जाएगा। 

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