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Tuesday, December 30, 2014

सिनेमा सौ करोड़ का...

पूंजी आती है,तो उसका महत्त्व और मूल्य भी घटता जाता है। विशेषकर फ़िल्म व्यवसाय के परिप्रेक्ष्य में तो पैसे का अवमूल्यन इन दिनों जग-जाहिर है। पहले अगर कोई फ़िल्म कुछ हफ्ते सिनेमाघरों में बिता लेती थी,तो उसे बड़ी उपलब्धि समझी जाती थी। तब फिल्मों की सफलता 'सिल्वर जुबली' या 'गोल्डन जुबली' के पैमाने पर मापी जाती थी। अधिक-से-अधिक दिनों तक सिनेमाघरों में ठीके रहना फिल्मों की सफलता का मापदंड था।...लेकिन अब एक-दो हफ्ते में होने वाले फ़िल्म व्यवसाय को उसकी सफलता से जोड़कर देखा जाता है। अब तो आलम यह है कि फ़िल्म की रिलीज़ के तीन-चार दिन ही उसका भविष्य तय कर देते हैं। शायद...इसकी वजह इन तीन-चार दिनों में फिल्मों के सौ करोड़ की कमाई का आंकड़ा छू लेने का ट्रेंड है। पिछले दिनों दीवाली के अवसर पर रिलीज़ हुई 'हैप्पी न्यू ईयर' ने तीन दिनों में ही सौ करोड़ की कमाई कर ली। अब यह फ़िल्म बेहद अभिजात्य 'दो सौ करोड़ क्लब' में भी शामिल हो चुकी है। दरअसल,इन दिनों हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में ' सौ करोड़ी क्लब' में शामिल होना प्रतिष्ठा और सफलता का सबब बन गया है।

बदली तस्वीर
गौर करें तो बदलते वक़्त के साथ फिल्म निर्माण से लेकर फिल्म की मार्केटिंग के तरीकों में इस कदर बदलाव आया है कि अब फ्लॉप-हिट की परिभाषा धूमिल हो गई है। बड़े प्रोडक्शन हाउसों ने फ़िल्म व्यवसाय की पूरी तस्वीर बदल दी है। अब बड़े प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बड़े बजट में बननेवाली फिल्में एक साथ ढाई से तीन हजार प्रिंटों के साथ रिलीज होती हैं। धुंआधार प्रचार के साथ शुक्रवार को रिलीज होकर फ़िल्में रविवार के आखिरी शो तक नफा-नुकसान का हिसाब सिर्फ तीन दिन में ही तय कर डालती है। फ़िल्म की रिलीज़ के बाद दर्शकों को लुभाने के लिए प्रचार-प्रसार के नये और अनूठे तरीकों से कमाई के आंकड़े को बढ़ाने की कोशिश जारी रहती है और फिर वह दिन भी जल्द ही आ जाता है जब फ़िल्म की कमाई सौ करोड़ के आंकड़े को छू लेती है और 'सौ करोड़ क्लब' में शामिल हो जाती है।

कमाई के नए आयाम
पिछले कुछ वर्षों में फिल्मों की कमाई के कई नए आयाम उभरे हैं जिसने फ़िल्म व्यवसाय को नयी ऊंचाइयां दी हैं। दरअसल,अब फिल्मों की कमाई सिर्फ टिकट खिड़की पर नहीं होती है। फ़िल्म की कमाई का पचास प्रतिशत यदि 'डिस्ट्रीब्यूशन राइट' से आता है,तो तीस प्रतिशत सेटेलाइट्स राइट से आता है।  म्यूजिक राइट से फ़िल्म की पंद्रह प्रतिशत कमाई होती है जबकि शेष पांच प्रतिशत की कमाई टिकट विक्री से होती है। यह फ़िल्म की अतिरिक्त कमाई होती है जो टिकट बिक्री के साथ बढ़ती जाती है। फ़िल्म व्यवसाय के इन नए आयामों के ही कारण फ़िल्में रिलीज के पहले ही अपनी लागत वसूल कर ले रही हैं। यदि 'हैप्पी न्यू ईयर' का ही उदाहरण लें तो 150 करोड़ में बनी इस फ़िल्म ने रिलीज के पूर्व 202 करोड़ (डिस्ट्रीब्यूशन राइट-125 करोड़, सैटेलाइट राइट-65 करोड़ और म्यूजिक राइट- 12 करोड़) की कमाई कर ली थी। दरअसल, बड़े सितारों की फिल्मों की लागत का बड़ा हिस्सा अब सेटेलाइट अधिकार से निकल आता है। इसी वर्ष रिलीज़ हुई 'हॉलीडे' की कुल लागत 75-80 करोड़ थी। करीब 15 करोड़ रुपए मार्केटिग में खर्च किए गए। इस तरह 'हॉलिडे' के निर्माण में 90 करोड़ की पूँजी निवेश  की गयी जबकि फिल्म के सेटेलाइट राइट 39 करोड़ रुपए में बिके। `चेन्नई एक्सप्रेस' के सेटेलाइटल राइट 50 करोड़ में बेचे गए थे जबकि फिल्म का कुल बजट 105 करोड़ के करीब था।  120 करोड़ में बनी 'धूम 3' के सेटेलाइट अधिकार 70 करोड़ से अधिक में बिके थे। इन आंकड़ों से ज्ञात है कि सेटेलाइट राइट फिल्मों की बड़ी कमाई का सबसे कारगर माध्यम बन गए हैं।

टिकट,प्रिंट और थिएटर
फ़िल्म के व्यवसाय को बढ़ाने में टिकट की कीमत,प्रिंट की संख्या,फ़िल्म की रिलीज़ के लिए बुक किये गए थिएटरों की संख्या और रिलीज़ के समय का अहम् योगदान होता है। ट्रेड विशेषज्ञ कोमल नाहटा बताते हैं,'पहले जहां फ़िल्में 200 से 250 प्रिंट्स के साथ रिलीज़ होती थीं वहीं आज धूम-3 जैसी फ़िल्में 4,500 प्रिंट्स के साथ रिलीज़ होती हैं। टिकटों की क़ीमत भी 10-15 रुपए से बढ़कर अब 500 रुपए या इससे भी ज़्यादा पहुंच चुकी है।' दरअसल,मौजूदा दौर में फ़िल्म टिकट की औसत कीमत 160 रुपये हो गयी है। जैसे-जैसे टिकट की कीमत बढ़ती है,फ़िल्म की कमाई भी बढ़ती जाती है। ठीक वैसे ही फिल्म जितने अधिक प्रिंट के साथ रिलीज होती हैं, उतनी ही अधिक कमाई करती हैं। यदि फिल्मों की रिलीज़ के लिए अधिक-से-अधिक थिएटर बुक किये जाते हैं,तो फ़िल्म की रिलीज़ के समय जुड़े दर्शकों के शुरूआती उत्साह के कारण कमाई भी अधिक होती है क्योंकि रिलीज़ के तुरंत बाद दर्शक अधिक-से-अधिक संख्या में सिनेमाघरों में पहुँचते हैं। त्योहारों की छुट्टियों के दौरान रिलीज़ भी फ़िल्म की कमाई के आंकड़ों को बढ़ाने में अहम् योगदान देती है। गौर करें तो सौ करोड़ क्लब में शामिल अधिकांश फ़िल्में त्योहारों के दौरान ही रिलीज़ हुई हैं।

हकीकत या शगूफा
करोड़ी क्लब में शामिल होने का दबाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। हर निर्माता,निर्देशक,अभिनेता और अभिनेत्री इस क्लब का हिस्सा बनकर अपना गुणगान कराना चाहता है।  इस ट्रेंड के कारण ही कई बार निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्मों की कमाई के आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं और रिलीज़ होते ही अपनी फ़िल्म को सौ करोड़ी क्लब में शामिल करने की जद्दोजहद में जुट जाते हैं। यही वजह है कि इन दिनों सौ करोड़ क्लब की फिल्मों की कमाई को संदेह की दृष्टि से भी देखा जाने लगा है। निर्माता अपनी फिल्मों की कमाई को इतना बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने लगे हैं कि अब करोड़ी क्लब की फिल्मों की कमाई के हकीकत पर भी प्रश्नचिह्न उठने लगे हैं। निर्देशक बासु चटर्जी कहते हैं,'किसी फिल्म की सफलता-असफलता को 'सौ करोड़ क्लब से जोडऩा बिलकुल गलत बात है। सही का सवाल ही नहीं उठता। ये तो फिल्मकारों की बातें हैं। इसमें कुछ तथ्य नहीं है। भारतीय सिनेमा में 'सौ करोड़ क्लब कल्चर एक प्लेग की बीमारी की तरह है।' सौ करोड़ क्लब की फिल्मों के पहले अभिनेता आमिर खान का यह बयान इस सन्दर्भ में बेहद प्रासंगिक है जिसमें उन्होंने कहा है,'बहुत सारी फिल्मो को सुपरहिट कहा जाता है लेकिन जरूरी नहीं हैं कि वे सुपरहिट हों। फिल्मों की कमाई के आंकड़े निर्माता और सितारे देते हैं।मैं जनता को बताना चाहूंगा कि 99 प्रतिशत आंकड़े फर्जी दिए जाते हैं। आंकड़ों को बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता है।  हकीकत में बिजनेस से जुड़े लोगों को सही आंकड़ा पता होता है। हमको मालूम है कि वास्तव में फिल्म का कितना धंधा हुआ है। कई बार फिल्म को आडियंस नकार देती है। उनका बिजनेस ठीक नहीं होता तब भी उसे बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता है। मैं इतना बता सकता हूं कि लोगों को जब फिल्म पसंद नहीं आती है तो चलती नहीं है। सही आंकड़ों के लिए सर्तकता बरतना जरूरी है। दरअसल, सब लोग जल्दबाजी में रहते हैं। चाहते हैं कि उनकी कमाई के आंकड़े जल्द से जल्द प्रकाशित हो जाएं।' आमिर खान के इस बयान से काफी हद तक जाहिर हो गया है कि 'सौ करोड़ क्लब' की हकीकत संदेह के घेरे में है।

कला या कारोबार!
सौ करोड़ क्लब के तथाकथित अभिजात्य फ़िल्म निर्माता-निर्देशकों ने व्यावसायिकता से प्रेरित फिल्मों के निर्माण को अधिक तरजीह दी है जिस कारण फिल्मों का कला-पक्ष उपेक्षा का शिकार हो रहा है। इस पूरे ट्रेंड से अर्थपूर्ण और कलात्मक फिल्मों के निर्देशक हतोत्साहित हो रहे हैं। उन्हें अपनी फ़िल्म के निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग मिलने में तकलीफ हो रही है क्योंकि अधिकांश निर्माताओं का लक्ष्य 'सौ करोड़ी क्लब' की उम्मीदवार फिल्मों का निर्माण करना बन गया है। वे बड़े सितारों वाली फार्मूला फिल्मों के निर्माण में व्यस्त हैं। यदि कोई प्रतिष्ठित निर्माता प्रयोगधर्मिता से प्रेरित होकर कलात्मक और मुद्दे पर आधारित फ़िल्म बनाता भी है,तो उसे 'सौ करोड़ी क्लब' में शामिल होने के उद्देश्य से बनायी गयी फ़िल्म से मुकाबला करने के लिए तैयार होना पड़ता है। इस मुकाबले में अक्सर उसकी हार होती है क्योंकि उसकी फ़िल्म के मुकाबले 'सौ करोड़ी क्लब' में शामिल होने के लिए तैयार फ़िल्म धुआंधार प्रचार के बाद अधिक प्रिंटों के साथ अधिक सिनेमाघरों में रिलीज़ होती है। दशहरा के मौके पर रिलीज़ हुई 'हैदर' और 'बैंग बैंग' का ही उदहारण लें। जहां 'हैदर' का कलात्मक पक्ष अधिक हावी था,वहीँ 'बैंग बैंग' व्यावसायिक सिनेमा के सारे गुणों से भरपूर था। हालांकि समीक्षकों और दर्शकों की नजर में 'बैंग बैंग' की तुलना में 'हैदर' कहीं बेहतरीन फ़िल्म थी,मगर 'सौ करोड़ी क्लब' में शामिल हुई-'बैंग बैंग'। इसकी वजह थी 'बैंग बैंग' की बड़े पैमाने पर रिलीज़। यह सच है कि 'बैंग बैंग' अधिक सफल रही,मगर ऐसी फ़िल्में कुछ ही दिनों में दर्शकों की यादों से धूमिल हो जाती है...वहीँ दूसरी तरफ 'हैदर' जैसी फिल्मों के हर दृश्य की यादें सिनेप्रेमियों के दिलों में बस जाती हैं। कोमल नाहटा कहते हैं,'दर्शकों की याददाश्त कमज़ोर हो रही है। फ़िल्म कितनी भी बड़ी ब्लॉकबस्टर क्यों ना हो..लोग दो-तीन हफ़्ते में उसे भूल जाते हैं। फ़िल्म अच्छी हो तो वह कारोबार करने के साथ-साथ लंबे समय तक याद रखी जाएगी।'
हिंदी फिल्मों के बेहतर भविष्य के लिए जरुरी है कि फिल्मों के निर्माण में उसके कलात्मक पक्ष और व्यावसायिक पक्ष के बीच संतुलन बनाया जाए....तभी फ़िल्में 'सौ करोड़' लोगों के दिलों में सौ वर्षों तक रह पाएंगी...वरना 'सौ करोड़ क्लब' का हिस्सा होने के बाद भी सौ से कम दिनों में भूला दी जाएंगी।

-सौम्या अपराजिता

करोड़ क्लब-तथ्य
-सौ करोड़ क्लब में वे फ़िल्में शामिल हैं जिन्होंने भारतीय बाजार से सौ करोड़ रुपये या इससे ज्यादा का कारोबार किया है।
-सौ करोड़ क्लब में अब तक 34 फ़िल्में शामिल हो चुकी हैं। इनमें से छह फिल्मों की कमाई ने दो सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया है।
-करोड़ क्लब की शीर्ष फ़िल्म है 'धूम 3'। इसने लगभग 280.25 करोड़ रुपये का कारोबार किया है।
-सौ करोड़ क्लब की अधिकांश फिल्मों के नायक सलमान खान हैं। उनकी सात फिल्में (एक था टाइगर, दबंग 2, दबंग, रेडी, बॉडीगार्ड, जय हो और किक) इस क्लब में शामिल हैं।
दो सौ करोड़ क्लब-
धूम 3
कृष 3
किक
चेन्नई एक्सप्रेस
3 इडियट्स
हैप्पी न्यू ईयर
पीके
सौ करोड़ क्लब-
एक था टाइगर
ये जवानी है दीवानी
बैंग बैंग
दबंग 2
बॉडीगार्ड
सिंघम रिटर्न्स
दबंग
राउडी राठौड़
जब तक है जान
रेडी
गलियों की लीला-रासलीला
जय हो
अग्निपथ
रा.वन
गज़नी
हॉलिडे
बर्फी
भाग मिल्खा भाग
डॉन2
गोलमाल 3
हाउसफुल 2
एक विलेन
सन ऑफ सरदार
बोल बच्चन
टू स्टेट्स
ग्रैंड मस्ती
रेस 2
सिंघम

Saturday, February 22, 2014

पर्दे का प्यार..

हसीन वादियां,सुहाना मौसम और मधुर संगीत..ख्वाबों की ऐसी दुनिया में ले जाते हैं,जहाँ सिर्फ प्यार की भाषा बोली जाती है। जहाँ कांटे नही,सिर्फ फूल खिलते हैं। जहाँ चेहरे पर चिंता की लकीरें नहीं खिंची होती,होता है तो सिर्फ प्यार का अहसास। जीवन की आपाधापी में ख्वाबों की  ऐसी रोमांटिक दुनिया तलाशना कठिन होता है। ख्वाबों-ख्यालों की इस रोमांटिक दुनिया से आंखें दो-चार होती हैं जब हम सिल्वर स्क्रीन निहारते हैं। इस रोमांटिक और रोमांचक दुनिया के प्रेमियों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है। उनका रोमांस कभी कश्मीर घाटी की हसीन वादियों में पनपता है, तो कभी नीदरलैंड का टॅयूलिप बागान उनके रोमांस का गवाह बनता है। कभी स्विट्जरलैंड की बर्फीली वादियों में प्यार के अहसास से सराबोर होते हैं,तो कभी वे पंजाब के लहलहाते खेत में हाथों-में-हाथ डालकर प्रेम-गीत गुनगुनाते हुए इजहार-ए-मोहब्बत करते हैं।

अंदाज नया,अहसास वही
सिल्वर स्क्रीन पर वक़्त के साथ इजहार-ए-मोहब्बत के अंदाज बदले हैं। अब दो फूलों का टकराना प्रेम-स्वीकृति का प्रतीक नहीं  है। अब तो चुम्बन से प्यार का इजहार किया जाता है। अब इजहार-ए-मोहब्बत के लिए बोलती आँखें काफी नहीं,'आई लव यू' या ' मैं तुमसे प्यार करता हूं' बोलना भी जरुरी है। इजहार-ए-मोहब्बत का अंदाज जरूर बदल गया है,पर भावना वही है। प्रियंका चोपड़ा कहती हैं,' समय भले ही बदल गया है लेकिन हकीकत की ही तरह सिनेमा में भी प्यार की परिभाषा और प्यार का अर्थ नहीं बदला है। प्यार करने वाले लोग बदल गए हैं। समय के साथ उनका अंदाज बदल गया है। प्यार को एक्सप्रेस करने का तरीका बदल गया है, लेकिन प्यार नहीं बदला है। प्यार का अहसास नहीं बदला है।'

आंखों-आंखों में
गौर करें तो हिन्दी सिनेमा के गोल्डेन एरा में प्रेम-रस में डूबे गीत और नायक-नायिका की बोलती आंखें ही काफी होती थीं।आंखों-ही-आंखों में प्यार का इशारा हो जाया करता था। प्रेमी-प्रेमिका के प्यार की गहराई दर्शक उनकी बोलती आँखों से ही पढ़ लिया करते थे। नायक-नायिकाओं का भावुक अभिनय और प्रेम-गीत मोहब्बत के इजहार के लिए रोमांटिक माहौल तैयार करते थे। कभी-कभी मोहब्बत-भरे इन दृश्यों को खुबसूरत बनाने के लिए धुएं का कृत्रिम माहौल तैयार किया जाता था। उस दौर की फिल्मों के आकर्षण होते थे ये दृश्य। 'आवारा' में नरगिस और राजकपूर के बीच के रोमांटिक दृश्यों को कौन भूल सकता है? कौन भूल सकता है 'मुगल-ए-आज़म' के उस रोमांटिक दृश्य को....जिसमें दिलीप कुमार पंख से मधुबाला के चेहरे को सहलाते हैं। नायक-नायिका के चेहरे के बदलते भावों से ही दर्शकों को उनके प्यार के इजहार और इंकार का अहसास हो जाता था।

वो फूलों का टकराना
वक्त बदला,तकनीक उन्नत हुई और धीरे-धीरे सिल्वर स्क्रीन का प्यार बदला। और फिर धीरे-धीरे प्यार के इजहार का तरीका भी बदलने लगा। मोहब्बत के इजहार की रोमांटिक भावना को उभारने के लिए प्रेम-रस में डूबे गीत के साथ प्रकृति की खुबसूरती का भी सहारा लिया जाने लगा। कश्मीर-घाटी की हसीन वादियों के दृश्य भी नायक-नायिका के बीच के प्यार-भरे पलों के संकेत चिह्न बन गए। अब घुटनों पर बैठकर नायक नायिका की खूबसूरती की तारीफ करते हुए अपने प्यार का इजहार करने लगा। प्यार का इजहार होता और फिर दो फूलों के टकराने का दृश्य आँखों के सामने आ जाता। फूलों का टकराना नायक-नायिका के आलिंगन का प्रतीक होता था।  'शोले' जैसी एक्शन फिल्म की पथरीली जमीन पर भी रोमांस का ख़ूबसूरत रंग चढ़ा। भला.. दिल को हथेली पर लिए घूमने वाले गबरू वीरू का पानी की टंकी पर चढकर बसंती से अपने प्यार का इजहार करना कौन भूल सकता है! जय और राधा के बीच ख़ामोश इजहार-ए-मोहब्बत के संवेदनशील दृश्य आज भी दिल को छू जाते हैं।

अन्तरंग इजहार
फिर दौर आया जब नायक-नायिका के बीच इजहार-ए-मोहब्बत के लिए चुम्बन और अन्तरंग दृश्यों को प्राथमिकता दी जाने लगी। तर्क दिया गया कि ये दृश्य आधुनिकता के दौर में प्रेम की स्वाभाविकता दर्शाने के लिए जरुरी हैं। कुछ नए प्रयोगों के साथ यह दौर आज भी जारी है। इजहार-ए-मोहब्बत के लिए चुम्बन दृश्यों के पक्ष में अदिति राव हैदरी कहती हैं,' मुझे नहीं लगता ऑनस्क्रीन किसिंग सीन देना एक बड़ी डील है। हमें बनावटी बनने की कोशिश करने की बजाय ईमानदार होना चाहिए। किसिंग तो लाइफ का एक सच है। इससे तुम अपने रिलेशन का इजहार कर रहे हो। फिल्मों में अश्लील डायलॉग होने से बेहतर है कि उसमें इंटिमेट सीन हो।'

शुद्ध देसी इजहार
नए दौर में कई फिल्मों में इजहार-ए-मोहब्बत के दृश्य बेहद रोचक अंदाज में दिखाए गए।' दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में नायक राज का खुद से कहना-' राज, अगर ये तुझे प्यार करती है तो पलट के देखेगी। पलट... पलट...' ,तो 'सोचा ना था' में नायक वीरेन का आधी रात नायिका अदिति की बालकनी फांदकर उसके घर में घुसकर पूछना,'आखिर क्या है मेरे-तुम्हारे बीच अदिति?' ...ये ऐसे दृश्य हैं जो रोचक तो हैं ही,साथ ही नए दौर के प्रेमियों की भावनाओं को भी दर्शाते हैं। मौजूदा दौर के हिंदी सिनेमा में इजहार-ए-मोहब्बत के दृश्यों में मील का पत्थर बना 'दिल चाहता है' का वह दृश्य जिसमें नायक दूसरे की शादी में 200 लोगों के सामने नायिका से अपने प्यार का इजहार करता है। इस दृश्य में यह दिखाने की कोशिश की गयी कि नयी पीढ़ी के पास दौड़ती-भागती जिंदगी में रुककर प्यार जैसे मुलायम अहसास को समझने के लिए समय नहीं मिल पाता। जिस कारण  प्यार का इजहार करने में देर हो जाती है। कभी-कभी तो जीवन की आपा धापी में मशगूल होने के कारण नायक या नायिका प्यार के अहसास को शिद्दत से महसूस किये बिना जल्दबाजी में प्यार का इजहार कर डालते हैं। अब स्क्रीन पर 'शुद्ध देसी रोमांस' होता है..। लड़के को लड़की मिली। लड़की ने कहा, 'तुम मुझे किस कर सकते हो?' लड़के ने लड़की को चूम लिया। हो गया प्यार का इजहार। बाद में उन्हें पता चलता है कि यह प्यार नहीं, सिर्फ आकर्षण है। जब मामला शादी तक पहुंचता है तब दोनों भाग निकलते हैं। 'राँझणा' के कुंदन की तरह प्यार के इजहार का अनोखा और हृदय स्पर्शी अंदाज कम-ही देखने को मिलता है।




उधेड़बुन नहीं,सिर्फ प्यार..
सिल्वर स्क्रीन की तरह ही स्मॉल स्क्रीन पर भी इजहार-ए मोहब्बत का अंदाज बदला-बदला सा है। नए दौर में स्मॉल स्क्रीन पर प्रेमी-प्रेमिका नहीं, पति-पत्नी रोमांस के ख़ूबसूरत पलों को जी रहे हैं।' बड़े अच्छे लगते हैं' के राम और प्रिया जहां जीवन के पचास दशक पूरे करने के बाद भी एक-दूसरे से अपने प्यार का इजहार करना नहीं भूलते,तो 'दीया और बाती हम' के सूरज अपनी पत्नी संध्या से ख़ामोशी की परतों में इजहार-ए-मोहब्बत करते हैं..वहीँ 'ये रिश्ता क्या कहलाता है' में नैतिक और अक्षरा एक-दूसरे के प्रति अपनी कोमल भावनाओं का इजहार करने के लिए व्यस्त जीवन से  ख़ूबसूरत पल चुनते रहते हैं। दरअसल,स्मॉल स्क्रीन के नायक-नायिका  सिल्वर स्क्रीन के नायक-नायिका की तरह प्रेमी-प्रेमिका वाले इजहार-ए-मोहब्बत की उधेड़बुन में नहीं उलझे रहते हैं। वे पति-पत्नी के रूप में अपने    वैवाहिक जीवन की मधुरता  को बनाये रखने के मोहब्बत के इजहार के नए अंदाज अपनाते हैं। उनका प्यार हकीकत के ताने-बाने में बुना हुआ है। उनके इजहार-ए-मोहब्बत का अंदाज परिपक्व और व्यावहारिक है.....।
-सौम्या अपराजिता

Tuesday, October 1, 2013

सिनेमा,शहर और सितारे...

 हिंदी सिनेमा ने हमेशा शहरों को जोड़ा है। सिनेमा पटल पर गढ़ी गयी एक शहर की कहानी दूसरे शहर में देखी-सुनी जाती है। फिल्मों के माध्यम से एक शहर की चारित्रिक विशेषताओं को दूसरे शहर के लोग जान और समझ पाते हैं। शहर और सिनेमा के इस कनेक्शन को और भी प्रगाढ़ बनाने के प्रयास हो रहे हैं। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों के अतिरिक्त अन्य शहरों की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्मों के निर्माण के साथ-साथ अब फिल्म प्रमोशन में भी छोटे शहरों को प्राथमिकता दी जा रही है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान छोटे शहर के प्रशंसकों को अपने प्रिय सितारों को देखने-सुनने के अवसर मिलने लगे हैं। अब छोटे शहर के दर्शक भी खुद को अपने प्रिय सितारे के करीब पा रहे हैं।

प्रशंसक हुए खुश
रणबीर कपूर ' बेशरम' के प्रमोशन के लिए जयपुर और जालंधर पहुंचते हैं,तो पटना में 'गैंग ऑफ़ वासिपुर' के गीत 'जिय हो बिहार के लाला' की पहली झलक से पर्दा उठता है। 'बॉडीगार्ड' के प्रमोशन के लिए सलमान खान इंदौर जाते हैं,तो ' राँझना' की सफलता के बाद सोनम कपूर सबसे पहले बनारस का रुख करती हैं। दरअसल,छोटे शहरों को फिल्म प्रमोशन के दौरान दी जा रही प्राथमिकता ने सितारों और छोटे शहरों के प्रशंसकों के बीच की दीवार गिरा दी है। अब सितारे फिल्म के प्रदर्शन के दौरान उनके बीच होते हैं। अब छोटे शहर के प्रशन्सक भी अपने प्रिय सितारे को करीब से निहार सकते हैं। पिछले दिनों 'शूटआउट एट वडाला' के प्रमोशन के दौरान जॉन अब्राहम से मुलाकात के बाद छोटे शहर की एक युवा प्रशंसक ने अपनी ख़ुशी कुछ इस अंदाज में जाहिर की,'अपने फेवरेट स्टार को सामने देखने का एक्सपीरियंस फिल्म देखने से ज्यादा अच्छा और हैपेनिंग होता है।'

छोटे शहरों से परिचय
 छोटे शहरों में फिल्म प्रमोशन की बढती गतिविधियों के कारण सितारे भी अब खुद को छोटे शहर की संस्कृति के करीब पा रहे हैं। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर में पले-बढे सितारे फिल्म प्रमोशन के बहाने छोटे शहर के लोगों की जीवन शैली,मूल्य,सुविधा-असुविधा और छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढने की कला को समझ पा रहे हैं। इंडिया के साथ-साथ 'भारत' से भी उनका परिचय होने लगा है। महानगरों की भाग-दौड़ से दूर छोटे शहरों की सुकून और शांति की जिन्दगी से वे दो-चार हो रहे है। महानगरों के कूपमंडूक जीवन से वे बाहर निकल रहे हैं। तभी तो बनारस में 'राँझना' की शूटिंग और फिर प्रमोशन की गतिविधियों में हिस्सा लेने के बाद बचपन से मुंबई की महानगरीय जीवनशैली का हिस्सा रही सोनम कपूर ने कहा,' बनारस में जो बात है, जो जोश है वह कहीं, किसी और शहर में नहीं है।'

 अपने शहर में..
 लम्बे अन्तराल के बाद जब फिल्म प्रमोशन के बहाने सितारे अपने शहर में पहुंचते हैं,तो उन्हें अपने दोस्तों,परिवारजनों के साथ कुछ खुशनुमा पल बिताने के मौके मिल जाते हैं। फिल्म प्रमोशन की गतिविधियों में सितारे अपने शहर को जोड़ने का व्यक्तिगत आग्रह करते हैं। वे चाहते हैं कि वे अपने शहर में अपने लोगों के बीच अपनी फिल्म के बारे में जानकारी दें। 'शुद्ध देसी रोमांस' के प्रमोशन के लिए सुशांत सिंह राजपूत का पटना जाने के लिए आग्रह किया,तो सलमान ने ' बॉडीगार्ड' के प्रमोशन के दौरान इंदौर पहुंचकर  बचपन की यादें ताज़ा की। इसी फिल्म प्रमोशन के दौरान इंदौर वासियों से आत्मीयता जाहिर करते हुए सलमान ने इंदौर की किसी लड़की से विवाह की इच्छा भी जता दी। दरअसल,जब सितारे  फिल्म शूटिंग की व्यस्तता के बीच अपने शहर पहुंचते हैं,तो उन्हें स्वदेश लौट आने का अहसास होता है। साथ ही,जब सितारे उपलब्धियों का आसमान छूने के बाद अपने शहर जाते हैं,तो उन्हें अपने शहर के लोगों का उत्साह बढाने का अवसर भी मिलता है। इसका ही एक उदहारण है बरेली वासियों से कहा गया प्रियंका चोपड़ा का यह कथन,' जब मैं बरेली से होते हुए भी मिस वर्ल्ड बन सकती हूं। इतनी बड़ी स्टार बन सकती हूं, तो दूसरी लड़कियां क्यों नहीं बन सकती।दूसरी लड़कियों के परिवार भी उनका साथ दें तो वे भी यह सब हासिल कर सकती हैं।'

सिनेमा में शहर
जब फिल्म किसी शहर विशेष पर आधारित होती है,तो  फिल्म प्रमोशन की गतिविधियों में भी वह शहर केंद्र में होता है। पिछले दिनों प्रदर्शित हुई 'शुद्ध देसी रोमांस' जयपुर में रची-बसी थी इसलिए प्रदर्शन से पूर्व इस फिल्म के सितारे यदा-कदा जयपुर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते थे। बनारस पर आधारित 'राँझना' के प्रमोशन से जुडी गतिविधियों के लिए बनारस को प्राथमिकता दी गयी। दरअसल,इधर कुछ अर्से से निर्माता-निर्देशकों का रुझान छोटे शहरों की तरफ बढ़ा है। अब महानगरों के तिलिस्म से निकलकर फिल्मों की कहानियां उन शहरों को केंद्र में रखकर भी गढ़ी जा रही हैं जहां 'भारत' बसता है। हबीब फैजल, अनुराग कश्यप और दिबाकर बनर्जी जैसे निर्देशक इन्हीं शहरों की वास्तविकता को दिखाने के लिए दिल्ली और मुंबई से बाहर निकले और 'इशकजादे', 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' और 'शंघाई' जैसी फिल्में बनायी। हबीब फैजल कहते हैं,' छोटे शहर काफी जीवंत और रंगीन है। वहां के लोगों में हास्य को लेकर दिलचस्प भावना है और उनके जीवन में अलग तरह का लय होता है। इसी विशेषता ने 'इशकजादे' बनाने के लिए मुझे प्रेरित किया।'

शहर और सिने बाजार
फिल्म निर्माता और वितरक की नजर विभिन्न शहरों के दर्शकों की रूचि पर होती है। बाजार में अपनी फिल्म को लाने के पहले वे तय कर लेते हैं कि किस शहर को प्राथमिकता देनी है। इस सन्दर्भ में शहर विशेष में फिल्म की विधा विशेष की लोकप्रियता के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं। उदाहरण स्वरुप हास्य रस से भरपूर फिल्मों के लिए गुजरात के शहरों को प्राथमिकता दी जाती है,तो सलमान खान की एक्शन मसाला फिल्मों को राजस्थान के विभिन्न शहरों के दर्शक अधिक पसंद करते हैं। मुंबई-दिल्ली के अतिरिक्त जिन शहरों को फिल्म प्रमोशन के दौरान प्राथमिकता दी जाती है वे हैं-चंडीगढ़,जालंधर,लखनऊ,इंदौर,जयपुर,पटना,नागपुर,पुणे,बड़ोदा,अहमदाबाद। प्रतिष्ठित फिल्म मार्केटिंग और पी आर एजेंसी स्पाइस भाषा के प्रभात चौधरी कहते हैं,'छोटे शहर फिल्म व्यवसाय में बेहतरीन योगदान दे रहे हैं। छोटे शहरों में ज्यादा-से-ज्यादा मल्टी प्लेक्स खुल रहे हैं। इससे उन शहरों में फिल्म व्यवसाय की संभावनाएं भी अधिक बढ़ रही हैं। अब यह आवश्यक हो गया है कि फिल्म का प्रमोशन महानगरों के बाहर किया जाए।' सच तो यह है कि महानगरों की अपेक्षा शहरों को फिल्म प्रमोशन की गतिविधियों में प्राथमिकता देने के साथ-साथ यदि  अधिक-से-अधिक फिल्मों का निर्माण छोटे शहर की पृष्ठभूमि पर किया जाएगा तभी सही मायने में शहर, सिनेमा और सितारों का यह ताना-बाना निखरकर सामने आएगा ..

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सौम्या अपराजिता