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Tuesday, December 30, 2014

सिनेमा सौ करोड़ का...

पूंजी आती है,तो उसका महत्त्व और मूल्य भी घटता जाता है। विशेषकर फ़िल्म व्यवसाय के परिप्रेक्ष्य में तो पैसे का अवमूल्यन इन दिनों जग-जाहिर है। पहले अगर कोई फ़िल्म कुछ हफ्ते सिनेमाघरों में बिता लेती थी,तो उसे बड़ी उपलब्धि समझी जाती थी। तब फिल्मों की सफलता 'सिल्वर जुबली' या 'गोल्डन जुबली' के पैमाने पर मापी जाती थी। अधिक-से-अधिक दिनों तक सिनेमाघरों में ठीके रहना फिल्मों की सफलता का मापदंड था।...लेकिन अब एक-दो हफ्ते में होने वाले फ़िल्म व्यवसाय को उसकी सफलता से जोड़कर देखा जाता है। अब तो आलम यह है कि फ़िल्म की रिलीज़ के तीन-चार दिन ही उसका भविष्य तय कर देते हैं। शायद...इसकी वजह इन तीन-चार दिनों में फिल्मों के सौ करोड़ की कमाई का आंकड़ा छू लेने का ट्रेंड है। पिछले दिनों दीवाली के अवसर पर रिलीज़ हुई 'हैप्पी न्यू ईयर' ने तीन दिनों में ही सौ करोड़ की कमाई कर ली। अब यह फ़िल्म बेहद अभिजात्य 'दो सौ करोड़ क्लब' में भी शामिल हो चुकी है। दरअसल,इन दिनों हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में ' सौ करोड़ी क्लब' में शामिल होना प्रतिष्ठा और सफलता का सबब बन गया है।

बदली तस्वीर
गौर करें तो बदलते वक़्त के साथ फिल्म निर्माण से लेकर फिल्म की मार्केटिंग के तरीकों में इस कदर बदलाव आया है कि अब फ्लॉप-हिट की परिभाषा धूमिल हो गई है। बड़े प्रोडक्शन हाउसों ने फ़िल्म व्यवसाय की पूरी तस्वीर बदल दी है। अब बड़े प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बड़े बजट में बननेवाली फिल्में एक साथ ढाई से तीन हजार प्रिंटों के साथ रिलीज होती हैं। धुंआधार प्रचार के साथ शुक्रवार को रिलीज होकर फ़िल्में रविवार के आखिरी शो तक नफा-नुकसान का हिसाब सिर्फ तीन दिन में ही तय कर डालती है। फ़िल्म की रिलीज़ के बाद दर्शकों को लुभाने के लिए प्रचार-प्रसार के नये और अनूठे तरीकों से कमाई के आंकड़े को बढ़ाने की कोशिश जारी रहती है और फिर वह दिन भी जल्द ही आ जाता है जब फ़िल्म की कमाई सौ करोड़ के आंकड़े को छू लेती है और 'सौ करोड़ क्लब' में शामिल हो जाती है।

कमाई के नए आयाम
पिछले कुछ वर्षों में फिल्मों की कमाई के कई नए आयाम उभरे हैं जिसने फ़िल्म व्यवसाय को नयी ऊंचाइयां दी हैं। दरअसल,अब फिल्मों की कमाई सिर्फ टिकट खिड़की पर नहीं होती है। फ़िल्म की कमाई का पचास प्रतिशत यदि 'डिस्ट्रीब्यूशन राइट' से आता है,तो तीस प्रतिशत सेटेलाइट्स राइट से आता है।  म्यूजिक राइट से फ़िल्म की पंद्रह प्रतिशत कमाई होती है जबकि शेष पांच प्रतिशत की कमाई टिकट विक्री से होती है। यह फ़िल्म की अतिरिक्त कमाई होती है जो टिकट बिक्री के साथ बढ़ती जाती है। फ़िल्म व्यवसाय के इन नए आयामों के ही कारण फ़िल्में रिलीज के पहले ही अपनी लागत वसूल कर ले रही हैं। यदि 'हैप्पी न्यू ईयर' का ही उदाहरण लें तो 150 करोड़ में बनी इस फ़िल्म ने रिलीज के पूर्व 202 करोड़ (डिस्ट्रीब्यूशन राइट-125 करोड़, सैटेलाइट राइट-65 करोड़ और म्यूजिक राइट- 12 करोड़) की कमाई कर ली थी। दरअसल, बड़े सितारों की फिल्मों की लागत का बड़ा हिस्सा अब सेटेलाइट अधिकार से निकल आता है। इसी वर्ष रिलीज़ हुई 'हॉलीडे' की कुल लागत 75-80 करोड़ थी। करीब 15 करोड़ रुपए मार्केटिग में खर्च किए गए। इस तरह 'हॉलिडे' के निर्माण में 90 करोड़ की पूँजी निवेश  की गयी जबकि फिल्म के सेटेलाइट राइट 39 करोड़ रुपए में बिके। `चेन्नई एक्सप्रेस' के सेटेलाइटल राइट 50 करोड़ में बेचे गए थे जबकि फिल्म का कुल बजट 105 करोड़ के करीब था।  120 करोड़ में बनी 'धूम 3' के सेटेलाइट अधिकार 70 करोड़ से अधिक में बिके थे। इन आंकड़ों से ज्ञात है कि सेटेलाइट राइट फिल्मों की बड़ी कमाई का सबसे कारगर माध्यम बन गए हैं।

टिकट,प्रिंट और थिएटर
फ़िल्म के व्यवसाय को बढ़ाने में टिकट की कीमत,प्रिंट की संख्या,फ़िल्म की रिलीज़ के लिए बुक किये गए थिएटरों की संख्या और रिलीज़ के समय का अहम् योगदान होता है। ट्रेड विशेषज्ञ कोमल नाहटा बताते हैं,'पहले जहां फ़िल्में 200 से 250 प्रिंट्स के साथ रिलीज़ होती थीं वहीं आज धूम-3 जैसी फ़िल्में 4,500 प्रिंट्स के साथ रिलीज़ होती हैं। टिकटों की क़ीमत भी 10-15 रुपए से बढ़कर अब 500 रुपए या इससे भी ज़्यादा पहुंच चुकी है।' दरअसल,मौजूदा दौर में फ़िल्म टिकट की औसत कीमत 160 रुपये हो गयी है। जैसे-जैसे टिकट की कीमत बढ़ती है,फ़िल्म की कमाई भी बढ़ती जाती है। ठीक वैसे ही फिल्म जितने अधिक प्रिंट के साथ रिलीज होती हैं, उतनी ही अधिक कमाई करती हैं। यदि फिल्मों की रिलीज़ के लिए अधिक-से-अधिक थिएटर बुक किये जाते हैं,तो फ़िल्म की रिलीज़ के समय जुड़े दर्शकों के शुरूआती उत्साह के कारण कमाई भी अधिक होती है क्योंकि रिलीज़ के तुरंत बाद दर्शक अधिक-से-अधिक संख्या में सिनेमाघरों में पहुँचते हैं। त्योहारों की छुट्टियों के दौरान रिलीज़ भी फ़िल्म की कमाई के आंकड़ों को बढ़ाने में अहम् योगदान देती है। गौर करें तो सौ करोड़ क्लब में शामिल अधिकांश फ़िल्में त्योहारों के दौरान ही रिलीज़ हुई हैं।

हकीकत या शगूफा
करोड़ी क्लब में शामिल होने का दबाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। हर निर्माता,निर्देशक,अभिनेता और अभिनेत्री इस क्लब का हिस्सा बनकर अपना गुणगान कराना चाहता है।  इस ट्रेंड के कारण ही कई बार निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्मों की कमाई के आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं और रिलीज़ होते ही अपनी फ़िल्म को सौ करोड़ी क्लब में शामिल करने की जद्दोजहद में जुट जाते हैं। यही वजह है कि इन दिनों सौ करोड़ क्लब की फिल्मों की कमाई को संदेह की दृष्टि से भी देखा जाने लगा है। निर्माता अपनी फिल्मों की कमाई को इतना बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने लगे हैं कि अब करोड़ी क्लब की फिल्मों की कमाई के हकीकत पर भी प्रश्नचिह्न उठने लगे हैं। निर्देशक बासु चटर्जी कहते हैं,'किसी फिल्म की सफलता-असफलता को 'सौ करोड़ क्लब से जोडऩा बिलकुल गलत बात है। सही का सवाल ही नहीं उठता। ये तो फिल्मकारों की बातें हैं। इसमें कुछ तथ्य नहीं है। भारतीय सिनेमा में 'सौ करोड़ क्लब कल्चर एक प्लेग की बीमारी की तरह है।' सौ करोड़ क्लब की फिल्मों के पहले अभिनेता आमिर खान का यह बयान इस सन्दर्भ में बेहद प्रासंगिक है जिसमें उन्होंने कहा है,'बहुत सारी फिल्मो को सुपरहिट कहा जाता है लेकिन जरूरी नहीं हैं कि वे सुपरहिट हों। फिल्मों की कमाई के आंकड़े निर्माता और सितारे देते हैं।मैं जनता को बताना चाहूंगा कि 99 प्रतिशत आंकड़े फर्जी दिए जाते हैं। आंकड़ों को बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता है।  हकीकत में बिजनेस से जुड़े लोगों को सही आंकड़ा पता होता है। हमको मालूम है कि वास्तव में फिल्म का कितना धंधा हुआ है। कई बार फिल्म को आडियंस नकार देती है। उनका बिजनेस ठीक नहीं होता तब भी उसे बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता है। मैं इतना बता सकता हूं कि लोगों को जब फिल्म पसंद नहीं आती है तो चलती नहीं है। सही आंकड़ों के लिए सर्तकता बरतना जरूरी है। दरअसल, सब लोग जल्दबाजी में रहते हैं। चाहते हैं कि उनकी कमाई के आंकड़े जल्द से जल्द प्रकाशित हो जाएं।' आमिर खान के इस बयान से काफी हद तक जाहिर हो गया है कि 'सौ करोड़ क्लब' की हकीकत संदेह के घेरे में है।

कला या कारोबार!
सौ करोड़ क्लब के तथाकथित अभिजात्य फ़िल्म निर्माता-निर्देशकों ने व्यावसायिकता से प्रेरित फिल्मों के निर्माण को अधिक तरजीह दी है जिस कारण फिल्मों का कला-पक्ष उपेक्षा का शिकार हो रहा है। इस पूरे ट्रेंड से अर्थपूर्ण और कलात्मक फिल्मों के निर्देशक हतोत्साहित हो रहे हैं। उन्हें अपनी फ़िल्म के निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग मिलने में तकलीफ हो रही है क्योंकि अधिकांश निर्माताओं का लक्ष्य 'सौ करोड़ी क्लब' की उम्मीदवार फिल्मों का निर्माण करना बन गया है। वे बड़े सितारों वाली फार्मूला फिल्मों के निर्माण में व्यस्त हैं। यदि कोई प्रतिष्ठित निर्माता प्रयोगधर्मिता से प्रेरित होकर कलात्मक और मुद्दे पर आधारित फ़िल्म बनाता भी है,तो उसे 'सौ करोड़ी क्लब' में शामिल होने के उद्देश्य से बनायी गयी फ़िल्म से मुकाबला करने के लिए तैयार होना पड़ता है। इस मुकाबले में अक्सर उसकी हार होती है क्योंकि उसकी फ़िल्म के मुकाबले 'सौ करोड़ी क्लब' में शामिल होने के लिए तैयार फ़िल्म धुआंधार प्रचार के बाद अधिक प्रिंटों के साथ अधिक सिनेमाघरों में रिलीज़ होती है। दशहरा के मौके पर रिलीज़ हुई 'हैदर' और 'बैंग बैंग' का ही उदहारण लें। जहां 'हैदर' का कलात्मक पक्ष अधिक हावी था,वहीँ 'बैंग बैंग' व्यावसायिक सिनेमा के सारे गुणों से भरपूर था। हालांकि समीक्षकों और दर्शकों की नजर में 'बैंग बैंग' की तुलना में 'हैदर' कहीं बेहतरीन फ़िल्म थी,मगर 'सौ करोड़ी क्लब' में शामिल हुई-'बैंग बैंग'। इसकी वजह थी 'बैंग बैंग' की बड़े पैमाने पर रिलीज़। यह सच है कि 'बैंग बैंग' अधिक सफल रही,मगर ऐसी फ़िल्में कुछ ही दिनों में दर्शकों की यादों से धूमिल हो जाती है...वहीँ दूसरी तरफ 'हैदर' जैसी फिल्मों के हर दृश्य की यादें सिनेप्रेमियों के दिलों में बस जाती हैं। कोमल नाहटा कहते हैं,'दर्शकों की याददाश्त कमज़ोर हो रही है। फ़िल्म कितनी भी बड़ी ब्लॉकबस्टर क्यों ना हो..लोग दो-तीन हफ़्ते में उसे भूल जाते हैं। फ़िल्म अच्छी हो तो वह कारोबार करने के साथ-साथ लंबे समय तक याद रखी जाएगी।'
हिंदी फिल्मों के बेहतर भविष्य के लिए जरुरी है कि फिल्मों के निर्माण में उसके कलात्मक पक्ष और व्यावसायिक पक्ष के बीच संतुलन बनाया जाए....तभी फ़िल्में 'सौ करोड़' लोगों के दिलों में सौ वर्षों तक रह पाएंगी...वरना 'सौ करोड़ क्लब' का हिस्सा होने के बाद भी सौ से कम दिनों में भूला दी जाएंगी।

-सौम्या अपराजिता

करोड़ क्लब-तथ्य
-सौ करोड़ क्लब में वे फ़िल्में शामिल हैं जिन्होंने भारतीय बाजार से सौ करोड़ रुपये या इससे ज्यादा का कारोबार किया है।
-सौ करोड़ क्लब में अब तक 34 फ़िल्में शामिल हो चुकी हैं। इनमें से छह फिल्मों की कमाई ने दो सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया है।
-करोड़ क्लब की शीर्ष फ़िल्म है 'धूम 3'। इसने लगभग 280.25 करोड़ रुपये का कारोबार किया है।
-सौ करोड़ क्लब की अधिकांश फिल्मों के नायक सलमान खान हैं। उनकी सात फिल्में (एक था टाइगर, दबंग 2, दबंग, रेडी, बॉडीगार्ड, जय हो और किक) इस क्लब में शामिल हैं।
दो सौ करोड़ क्लब-
धूम 3
कृष 3
किक
चेन्नई एक्सप्रेस
3 इडियट्स
हैप्पी न्यू ईयर
पीके
सौ करोड़ क्लब-
एक था टाइगर
ये जवानी है दीवानी
बैंग बैंग
दबंग 2
बॉडीगार्ड
सिंघम रिटर्न्स
दबंग
राउडी राठौड़
जब तक है जान
रेडी
गलियों की लीला-रासलीला
जय हो
अग्निपथ
रा.वन
गज़नी
हॉलिडे
बर्फी
भाग मिल्खा भाग
डॉन2
गोलमाल 3
हाउसफुल 2
एक विलेन
सन ऑफ सरदार
बोल बच्चन
टू स्टेट्स
ग्रैंड मस्ती
रेस 2
सिंघम

Sunday, March 16, 2014

होली के रंग सिनेमा के संग

गुलाल और रंगों से सराबोर कपड़ों में ढोलक की थाप पर उल्लास के इन्द्रधनुषी रंग बिखेरते नायक-नायिका अब सिल्वर स्क्रीन पर कम ही दिखते हैं। होली के त्योहार को प्रतीकात्मक रूप से फिल्मों की कहानी में पिरोने का सिलसिला अब गुजऱे जमाने की बात हो गयी है। 
जैसे-जैसे फिल्मों के तकनीकी पक्ष और भव्यता को लेकर  फिल्ममेकर गंभीर होते जा रहे हैं,परंपरागत त्योहारों के उल्लास से हमारी फिल्मों की दूरियां भी बढ़ती जा रही हैं। होली के रंगों से भींगी रहने वाली फिल्में अब दर्शकों के लिए कम उपलब्ध हुआ करती हैं। कभी,होली का त्योहार हमारी फिल्मों की पटकथा का प्रिय विषय हुआ करता था ,पर आज की फिल्मों में होली के दृश्य शायद ही रहते हैं। फिल्मों में होली के दृश्यों के लुप्तप्राय होने के सन्दर्भ में फिल्म विशेषज्ञ तरन आदर्श  कहते हैं,'यह सच है कि इन दिनों हिंदी फिल्मों में होली का सेलिब्रेशन नहीं दिखता है। पहले की फिल्मों में  स्क्रिप्ट में होली के दृश्यों की गुंजाइश रखी जाती थी जबकि आज कल फिल्म मेकर अपनी स्क्रिप्ट को लेकर ज्यादा स्ट्रिक्ट हैं। ऐसे में अगर स्क्रिप्ट में  होली का जिक्र नहीं है,तो वे जबरदस्ती होली के दृश्य अपनी फिल्म में नहीं डालते हैं।'यदि बीते कुछ वर्षों की बात करें,तो पिछले वर्ष प्रदर्शित हुई 'ये जवानी है दीवानी' में दीपिका पादुकोण और रणबीर कपूर पर फिल्माए गए गीत 'बलम पिचकारी' के दृश्यों को छोड़ दें, तो फिल्मों में  होली की रंगीन फिजाएं नाममात्र ही दिखीं। एक समय ऐसा भी था जब हमारी फ़िल्में होली के रंगों से भींगी रहती थीं। होली से हमारे फिल्ममेकरों का लगाव इतना अधिक हुआ करता था कि वे अपनी फिल्म के शीर्षक में भी होली के रंग भर देते थे।

खुशियों का इजहार करना हो या प्यार भरी छेड़छाड़ हो या फिर,जीवन के खुशनुमा पलों को याद करना हो -माध्यम रहता था, होली का त्योहार। होली को केंद्र में रखकर कई  फिल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं। 'होली' शीर्षक से ही दो फिल्में बन चुकी हैं। जहाँ 1940 में बनी 'होली' में सितारा देवी,मोतीलाल  थें वहीं,1984 में प्रदर्शित हुई केतन मेहता की 'होली' से आमिर खान ने अपने फिल्मी करियर की शुरूआत की थी। माला सिन्हा,बलराज साहनी,शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत 'होली आयी रे' होली को केंद्र में रखकर बनायी गयी फिल्मों में सबसे उल्लेखनीय है। होली की पृष्ठभूमि में रखकर बनायी गयी 'होली आयी रे' आज भी जब टेलीविजन पर दिखायी जाती है तो दर्शक इस फिल्म के साथ होली के रंग में गीले हो जाना पसंद करते हैं। मधुबाला और भारत भूषण अभिनीत 'फागुन' और धर्मेंद्र और वहीदा रहमान अभिनीत 'फागुन ' की पटकथा  होली के रंगों से सराबोर थी। इन फिल्मों के शीर्षक मात्र से ही होली के मनोहारी दृश्य मन-मस्तिष्क में कौंध जाते हैं। होली हमारे फिल्म निर्माताओं का सबसे प्रिय त्योहार रहा है।
कहानी में ट्विस्ट लाने के लिए होली के त्योहार का प्रयोग हिन्दी फिल्मों में होता रहा है। सत्तर-अस्सी के दशक में तो हर पांचवी फिल्म में होली के दृश्यों का फिल्मांकन किया जाता था। 'शोले' की होली हिंदी सिनेमा की यादगार होली रही है। गब्बर ने रामगढ़ पर आक्रमण करने के लिए होली का ही दिन चुना था। पुरानी 'शोले' के ही तर्ज पर 'रामगोपाल वर्मा की आग' का बब्बन भी अपने छोटे भाई की मौत का बदला लेने के लिए होली का दिन चुनता है। लेकिन,'रामगोपाल वर्मा की आग' की होली 'शोले' की होली के सामने फींकी लगती है। 'सिलसिला' में अमिताभ-रेखा के प्रेम संबंधों की गूढ़ता को 'रंग बरसे' गीत ने सरल कर दिया था तभी तो लोक-लाज की परवाह किए बिना होली के बहाने इस गीत में अमिताभ ने रेखा के प्रति अपनी कोमल भावनाओं का सरेआम इजहार कर दिया। भावनाओं के उमड़ते बादल को होली के गीत सहारा देते आए हैं। होली के पावन पर्व की आड़ में होने वाले दुराचार पर भी कई फिल्मों की कहानी की नींव रखी गयी है। 'होली आयी रे' और 'दामिनी' की कहानी ऐसे ही दृश्यों से प्रारंभ होती है। 
आजकल,होली की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्में तो दूर की बात है ,होली के दृश्य भी रूपहले पर्दे से ओझल होते जा रहे हैं। व्यावसायिक सफलता की चाह में हमारे फिल्म निर्माता परंपरागत त्योहारों का महत्व नहीं समझ पा रहे हैं।

'होली के दिन दिल मिल जाते हैं' गीत की पंक्तियां आज प्रासंगिक नहीं लगती हैं। प्रेम का इजहार करने के लिए नायक अब होली का इंतज़ार नहीं करते। इंस्टैंट प्रेम का जमाना है....होली के त्योहार का इंतजार करना हमारे आधुनिक नायकों को नहीं भाता है, अब तो 'वैलेंटाइन डे' ही उनके अनुकूल है। शायद ,यही वजह है कि 'चल जा रे हट नटखट','आज ना छोड़ेंगे बस हमजोली' जैसे प्रेम-रस से सराबोर होली के गीतों का अभाव आज की फिल्मों में मिलता है। इन पुराने नटखट गीतों की तर्ज पर हमारी युवा पीढ़ी को भी अपने जमाने के होली के गीतों की दरकार है। ऐसा नहीं है कि होली के गीत फिल्मों से पूरी तरह विलुप्त हो गए हैं। कोशिशें होती हैं लेकिन परिणाम सकारात्मक नहीं आते हैं। हमारी नायिकाएं अब 'होली आयी रे कन्हाई रंग बरसे सुना दे जऱा बांसुरी' की जगह 'डू मी ए फेवर लेट्स प्ले होली' गुनगुनाना बेहतर समझती है। राधा-कृष्ण की पारंपरिक होली पर  अंग्रेजी रंग चढ़ गया है। यही वजह  है कि अंग्रेजी बोलों में ढले ये गीत होली की परंपराओं का निर्वहन नहीं कर पाते हैं और जल्द ही गुमनामी के अंधेरे में चले जाते हैं। 'बागबान' के गीत 'होली खेले रघुवीरा' और 'बनारस' के गीत 'रंग डालो फेंकों गुलाल' को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा होली के रंगों में भींगा गीत हो जो यादगार बन गया हो। होली के उल्लास की बानगी बयां करते इन दोनों गीतों के लेखक  समीर कहते हैं,'आज ऐसा वक्त आ गया है कि हमारी फिल्मों से त्योहार गायब हो गए हैं। न होली दिख रही है न दीवाली। मेरा मानना है कि हमें अपनी परंपराओं से कटना नहीं चाहिए। ये त्योहार ही हैं जो हमें ऊर्जा देते हैं।'उल्लेखनीय है कि भारतीय सिनेमा ने अपने सौ साल के सफ़र में होली के गीतों के जरिये समाज और संस्कृति की ख़ूबसूरत तस्वीर पेश की है। कई बार तो ये गीत होली का पर्याय बनकर उभरे हैं।
उम्मीद है..इस इंद्रधनुषी उत्सव की छटा पुन: रूपहले पर्दे पर बिखरेगी और एक बार फिल्मी कैनवास पिचकारियों की धार और गुलाल की बौछार से रंगीला हो जाएगा।
-सौम्या अपराजिता