छोटे शहरों में ही बड़े सपने पलते हैं। ...ये बड़े सपने तब हकीकत बनते है जब उन्हें हौसलों की उड़ान मिलती है। इन्हीं बुलंद हौसलों के साथ अपने बड़े-बड़े सपने को हकीकत में बदलने के लिए कई प्रतिभाएं छोटे शहर से होते हुए फिल्मों की नगरी तक पहुंचती हैं। उनके पास प्रतिभा होती है। नयी सोच और नया दृष्टिकोण होता है। वे महानगरों के 'इंडिया'से इतर छोटे शहरों के 'भारत' से परिचित होते हैं। नयी और हकीकत से जुडी सोच के ये पैरोकार जब फिल्म निर्देशक बनकर सिल्वर स्क्रीन पर कुछ नया और अलग गढ़ने का प्रयास करते हैं,तो अक्सर उसका परिणाम सुखद और सार्थक होता है।
बदलाव की बयार
छोटे शहर की पृष्ठभूमि के सुभाष घई और प्रकाश झा जैसे दिग्गज निर्देशकों से प्रेरित होकर कई युवा प्रतिभाओं ने छोटे शहर से फिल्म निर्देशन का सफ़र सफलतापूर्वक तय किया है। छोटे शहर के मूल्यों और संस्कारों की पोटली लिए इन निर्देशकों ने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी फिल्मों की दिशा और दशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभायी है। 'पान सिंह तोमर' के लेखन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुके लेखक संजय चौहान कहते हैं,'फिल्मों में वास्तविक बदलाव छोटे शहरों से आये लेखक और निर्देशक कर रहे हैं। अगले दस सालों में यह आमद और बढ़ेगी। थोड़ा वक्त लगेगा, भेड़चाल होगी, लेकिन उनके बीच ही नयी चीजें सामने आएंगी। बाहर से आये फिल्ममेकर की जड़ें गहरी हैं। उनकी कहानियां जमीनी और सहज हैं।' छोटे शहर से आये निर्देशक सरल,सहज,दूरदर्शी,यथार्थवादी और ईमानदार होते हैं यही वजह है कि नयी पीढ़ी के दर्शकों के बीच वे अधिक लोकप्रिय हैं। रोचक तथ्य है कि ये निर्देशक मनोरंजन को हकीकत और कलात्मकता के ताने-बाने में बुन कर दर्शकों के सामने पेश करते हैं।
छोटे शहर की पृष्ठभूमि के सुभाष घई और प्रकाश झा जैसे दिग्गज निर्देशकों से प्रेरित होकर कई युवा प्रतिभाओं ने छोटे शहर से फिल्म निर्देशन का सफ़र सफलतापूर्वक तय किया है। छोटे शहर के मूल्यों और संस्कारों की पोटली लिए इन निर्देशकों ने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी फिल्मों की दिशा और दशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभायी है। 'पान सिंह तोमर' के लेखन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुके लेखक संजय चौहान कहते हैं,'फिल्मों में वास्तविक बदलाव छोटे शहरों से आये लेखक और निर्देशक कर रहे हैं। अगले दस सालों में यह आमद और बढ़ेगी। थोड़ा वक्त लगेगा, भेड़चाल होगी, लेकिन उनके बीच ही नयी चीजें सामने आएंगी। बाहर से आये फिल्ममेकर की जड़ें गहरी हैं। उनकी कहानियां जमीनी और सहज हैं।' छोटे शहर से आये निर्देशक सरल,सहज,दूरदर्शी,यथार्थवादी और ईमानदार होते हैं यही वजह है कि नयी पीढ़ी के दर्शकों के बीच वे अधिक लोकप्रिय हैं। रोचक तथ्य है कि ये निर्देशक मनोरंजन को हकीकत और कलात्मकता के ताने-बाने में बुन कर दर्शकों के सामने पेश करते हैं।
प्रयोगधर्मी विशाल
विशाल भारद्वाज की फिल्मों का रंग-रूप और कथानक उन्हें दूसरे निर्देशकों की फिल्मों से अलग बनाता है। प्रयोगात्मक शैली की फ़िल्में बनाने में विशाल दक्ष हैं। मेरठ में पले-बढ़े विशाल ने एक तरफ 'मकबूल' और 'कमीने' जैसी फिल्म बनायी तो दूसरी तरफ 'मकड़ी' और 'मटरू की बिजली का मंडोला' जैसी फिल्मों का निर्माण किया। मेरठ से मुंबई की फ़िल्मी दुनिया का सफर तय करने वाले विशाल ने अपनी ही तरह छोटे शहर के अभिषेक चौबे को सिल्वर स्क्रीन पर 'इश्किया' की कहानी रचने का अवसर दिया। फ़ैजाबाद के अभिषेक ने विशाल भारद्वाज निर्मित ' इश्किया' का निर्देशन कर बता दिया कि ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि की प्रेम कहानी भी दर्शकों का मनोरंजन कर सकती है बशर्ते उसके कथानक में कुछ दम हो।
विशाल भारद्वाज की फिल्मों का रंग-रूप और कथानक उन्हें दूसरे निर्देशकों की फिल्मों से अलग बनाता है। प्रयोगात्मक शैली की फ़िल्में बनाने में विशाल दक्ष हैं। मेरठ में पले-बढ़े विशाल ने एक तरफ 'मकबूल' और 'कमीने' जैसी फिल्म बनायी तो दूसरी तरफ 'मकड़ी' और 'मटरू की बिजली का मंडोला' जैसी फिल्मों का निर्माण किया। मेरठ से मुंबई की फ़िल्मी दुनिया का सफर तय करने वाले विशाल ने अपनी ही तरह छोटे शहर के अभिषेक चौबे को सिल्वर स्क्रीन पर 'इश्किया' की कहानी रचने का अवसर दिया। फ़ैजाबाद के अभिषेक ने विशाल भारद्वाज निर्मित ' इश्किया' का निर्देशन कर बता दिया कि ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि की प्रेम कहानी भी दर्शकों का मनोरंजन कर सकती है बशर्ते उसके कथानक में कुछ दम हो।
अनुराग और अभिनव
गोरखपुर के अनुराग कश्यप का हिंदी सिनेमा को नए रंग-रूप में ढालने में सक्रिय योगदान है। कहानी कहने की उनकी नयी शैली,हकीकत के करीब का उनका सिनेमा.. नयी पीढ़ी के निर्देशकों की प्रेरणा है।' ब्लैक फ्राइडे','पांच','देव डी','गुलाल' और 'गैंग ऑफ़ वासिपुर' जैसी फिल्मों का निर्देशन अनुराग ही कर सकते थे। अनुराग कहते हैं,'कई छोटे शहरों में मैं रहा हूं। मैंने बहुत कुछ उन छोटे शहरों से ग्रहण किया है। मैं उनसे खुद को जुड़ा हुआ पाता हूं। मेरी फिल्मों में भी वह जुडाव झलकता है।' अनुराग कश्यप के साथ उनके छोटे भाई अभिनव कश्यप ने भी छोटे शहर के अपने जुडाव को अपनी फिल्मों के माध्यम से दिखाया। अभिनव की फिल्मों ' दबंग' और 'बेशर्म' में भी छोटे शहर की संस्कृति झलकती है।
गोरखपुर के अनुराग कश्यप का हिंदी सिनेमा को नए रंग-रूप में ढालने में सक्रिय योगदान है। कहानी कहने की उनकी नयी शैली,हकीकत के करीब का उनका सिनेमा.. नयी पीढ़ी के निर्देशकों की प्रेरणा है।' ब्लैक फ्राइडे','पांच','देव डी','गुलाल' और 'गैंग ऑफ़ वासिपुर' जैसी फिल्मों का निर्देशन अनुराग ही कर सकते थे। अनुराग कहते हैं,'कई छोटे शहरों में मैं रहा हूं। मैंने बहुत कुछ उन छोटे शहरों से ग्रहण किया है। मैं उनसे खुद को जुड़ा हुआ पाता हूं। मेरी फिल्मों में भी वह जुडाव झलकता है।' अनुराग कश्यप के साथ उनके छोटे भाई अभिनव कश्यप ने भी छोटे शहर के अपने जुडाव को अपनी फिल्मों के माध्यम से दिखाया। अभिनव की फिल्मों ' दबंग' और 'बेशर्म' में भी छोटे शहर की संस्कृति झलकती है।
इम्तियाज की प्रेम अभिव्यक्ति
अनुराग कश्यप के साथ जमशेदपुर के इम्तियाज अली ने भी अपनी अनूठी अभिव्यक्ति के कारण हिंदी फिल्मों में अपनी पहचान बनायी। हकीकत के करीब गढ़ी गयी इम्तियाज की प्रेम कहानियों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। जब वी मेट , रॉक स्टार और लव आजकल जैसी फिल्मों से इम्तियाज ने दर्शकों के दिल की कोमल भावनाओं को छूया। इम्तियाज की फिल्मों का अपना बड़ा प्रशंसक वर्ग है जो शिद्दत से अपने प्रिय निर्देशक की फिल्मे के प्रदर्शन का इंतज़ार करता है।
अनुराग कश्यप के साथ जमशेदपुर के इम्तियाज अली ने भी अपनी अनूठी अभिव्यक्ति के कारण हिंदी फिल्मों में अपनी पहचान बनायी। हकीकत के करीब गढ़ी गयी इम्तियाज की प्रेम कहानियों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। जब वी मेट , रॉक स्टार और लव आजकल जैसी फिल्मों से इम्तियाज ने दर्शकों के दिल की कोमल भावनाओं को छूया। इम्तियाज की फिल्मों का अपना बड़ा प्रशंसक वर्ग है जो शिद्दत से अपने प्रिय निर्देशक की फिल्मे के प्रदर्शन का इंतज़ार करता है।
तिग्मांशु का सिनेमा
छोटे शहरों से आए निर्देशक अपने तजुर्बों और अपने शहरों के किस्से-कहानियों पर फिल्में बनाते हैं। इन निर्देशकों की फिल्मों का ही प्रभाव है कि शहरों में रहने वाला भारतीय भी अब देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों के बारे में जानने लगा है। 'हासिल' और अब 'बुलेट राजा' के जरिये तिग्मांशु धूलिया ने उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय राजनीति की गतिविधियों से दर्शकों को काल्पनिक कथानक के जरिये परिचित कराने के विभिन्न प्रयास किये।तिग्मांशु कहते हैं,'चूंकि हम छोटे शहर से हैं इसलिए हमारे सोचने का दायरा बड़ा होता है। हम ज्यादा रियल और रॉ होते हैं। और यही बात हमारे सिनेमा में भी दिखता है।'
छोटे शहरों से आए निर्देशक अपने तजुर्बों और अपने शहरों के किस्से-कहानियों पर फिल्में बनाते हैं। इन निर्देशकों की फिल्मों का ही प्रभाव है कि शहरों में रहने वाला भारतीय भी अब देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों के बारे में जानने लगा है। 'हासिल' और अब 'बुलेट राजा' के जरिये तिग्मांशु धूलिया ने उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय राजनीति की गतिविधियों से दर्शकों को काल्पनिक कथानक के जरिये परिचित कराने के विभिन्न प्रयास किये।तिग्मांशु कहते हैं,'चूंकि हम छोटे शहर से हैं इसलिए हमारे सोचने का दायरा बड़ा होता है। हम ज्यादा रियल और रॉ होते हैं। और यही बात हमारे सिनेमा में भी दिखता है।'
राजकुमार का वैविध्य
पहली फिल्म 'आमिर'...दूसरी फिल्म 'नो वन किल्ड जेसिका' और तीसरी फिल्म 'घनचक्कर'...निर्देशक के रूप में राजकुमार गुप्ता के वैविध्य की यह बानगी है । झारखण्ड के हजारीबाग में पले-बढे और बोकारो में पढ़े राजकुमार गुप्ता ने जब फिल्म निर्देशन का रुख किया तो उन्होंने सबसे पहले अपनी फिल्म के लिए आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर आधारित आम आदमी की संवेदनशील कहानी चुनी और बना डाली 'आमिर'। आमिर जैसी छोटी फिल्म से राजकुमार गुप्ता ने अपना प्रारंभिक प्रभाव छोड़ा। ..और वे भी जल्द ही छोटे शहरों के बड़े निर्देशकों की सूची में शामिल हो गयें । राजकुमार कहते हैं,'जब छोटे शहर से कोई बड़े शहर में आता है,तो वह हर चीज को नए नजरिये से देखता है क्योंकि उसके लिए सभी परिस्थितियां नयी होती हैं। ऐसे में वह किसी भी चीज को देखने का दो नजरिया अपनाता है जो बड़े शहर के लोगों के पास नहीं हो सकता। वह छोटे शहर और बड़े शहर दोनों के नजरिये से किसी चीज को देख सकता है जबकि बड़े शहर का कोई शख्स ऐसा नहीं कर सकता।'
पहली फिल्म 'आमिर'...दूसरी फिल्म 'नो वन किल्ड जेसिका' और तीसरी फिल्म 'घनचक्कर'...निर्देशक के रूप में राजकुमार गुप्ता के वैविध्य की यह बानगी है । झारखण्ड के हजारीबाग में पले-बढे और बोकारो में पढ़े राजकुमार गुप्ता ने जब फिल्म निर्देशन का रुख किया तो उन्होंने सबसे पहले अपनी फिल्म के लिए आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर आधारित आम आदमी की संवेदनशील कहानी चुनी और बना डाली 'आमिर'। आमिर जैसी छोटी फिल्म से राजकुमार गुप्ता ने अपना प्रारंभिक प्रभाव छोड़ा। ..और वे भी जल्द ही छोटे शहरों के बड़े निर्देशकों की सूची में शामिल हो गयें । राजकुमार कहते हैं,'जब छोटे शहर से कोई बड़े शहर में आता है,तो वह हर चीज को नए नजरिये से देखता है क्योंकि उसके लिए सभी परिस्थितियां नयी होती हैं। ऐसे में वह किसी भी चीज को देखने का दो नजरिया अपनाता है जो बड़े शहर के लोगों के पास नहीं हो सकता। वह छोटे शहर और बड़े शहर दोनों के नजरिये से किसी चीज को देख सकता है जबकि बड़े शहर का कोई शख्स ऐसा नहीं कर सकता।'
छोटे शहर के बड़े निर्देशकों की नयी पीढ़ी---
विशाल भारद्वाज-मेरठ
अनुराग कश्यप-गोरखपुर
अभिनव कश्यप-गोरखपुर
इम्तियाज अली- जमशेदपुर
राजकुमार गुप्ता- हजारीबाग
तिग्मांशु धुलिया-इलाहाबाद
अनुभव सिन्हा-बनारस
अभिषेक चौबे-फ़ैजाबाद
अनुराग कश्यप-गोरखपुर
अभिनव कश्यप-गोरखपुर
इम्तियाज अली- जमशेदपुर
राजकुमार गुप्ता- हजारीबाग
तिग्मांशु धुलिया-इलाहाबाद
अनुभव सिन्हा-बनारस
अभिषेक चौबे-फ़ैजाबाद
-सौम्या अपराजिता