Monday, May 4, 2009

रूपहले पर्दे पर राजनीति के दांव - पेंच

[सौम्या अपराजिता]
राजनीति और फिल्में एक - दूसरे को लुभाती हैं । दोनों में इन दिनों अन्योन्याश्रय सम्बन्ध -सा बन गया है ।जहाँ राजनीति में फिल्मी पृष्ठभूमि शख्सियतों की सक्रियता बढ़ रही है वहीं , राजनीतिक पृष्ठभूमि पर फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया भी काफी पुरानी रही है । रूपहले पर्दे पर राजनीति के दांव - पेंच और सत्ता पर काबिज़ होने के लिए राजनेताओं की उठा - पटक से आम जनता रु बरु होती रही है । बस , फर्क इतना होता है कि फिल्मों के राजनेता काल्पनिक होते हैं , परिस्थितियाँ काल्पनिक होती हैं ।

फिल्मों में राजनीतिक ताना - बना
वरिष्ठ निर्देशक गुलजार अपनी फिल्मों में राजनीतिक ताने-बाने का प्रयोग करते रहे हैं। गुलजार निर्देशित 'आंधी' हो या 'हू तू तू' दोनों में ही राजनेताओं की व्यक्तिगत उलझनों को उभारने का प्रयास किया गया है। 'आंधी' में जहाँ चुनावी हलचल के बीच उभरते प्रेम को चित्रित किया गया, वहीं 'हू तू तू' में राजनेताओं और व्यवसायियों की सांठ-गांठ को दर्शाया गया। समकालीन फिल्मी परिदृश्य के प्रतिभाशाली निर्देशकों की सूची में शुमार होने वाले प्रकाश झा की फिल्मों का परिवेश ही राजनीति होता है। वह अपने गृहराज्य बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि को सजीवता के साथ अपनी फिल्मों में गढ़ते हैं। 'दामुल', 'गंगाजल' और 'अपहरण' के बाद अब प्रकाश अपनी सर्वाधिक महत्वाकांक्षी फिल्म के निर्माण-निर्देशन में व्यस्त है, जिसका नाम ही है, 'राजनीति'। 'दामुल' में जातिवाद की राजनीति, तो 'गंगाजल' में अपराध और राजनेताओं के सांठ-गांठ के बीच फंसे एक ईमानदार पुलिस अधिकारी की कश्मकश को चित्रित किया गया। 'अपहरण' में प्रकाश झा ने अपने सुलझे निर्देशन और राजनीतिक समझ से बिहार की राजनीति में बाहुबलियों के वर्चस्व से आम जनता को रू-ब-रू कराया।
राजनीतिक थ्रिलर
प्रयोगात्मक सिनेमा के अग्रदूत कहे जाने वाले निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने भी राजनीतिक दांव-पेंचों को अपने अंदाज में रूपहले पर्दे पर पेश करने का प्रयास किया है। 'शिवा' में उन्होंने छात्र-राजनीति को आधार बनाया, तो 'सरकार' और 'सरकार राज' में मुख्यधारा की राजनीतिक शख्सियतों के व्यक्तित्व को उभारने की कोशिश की। महाराष्ट्र की राजनीति से सरोकार रखने वाली 'सरकार' और 'सरकार राज' में राजनीति की घुमावदार सड़कें थ्रिलर का मजा देती हैं। राजनीति का मतलब है सिर्फ अपना और अपने के फायदे का ध्यान रखना..। यह 'सरकार' और 'सरकार राज' दोनों फिल्मों का मूल कथ्य रहा है।
राजनेताओं के निहित स्वार्थ का चित्रण
'लीडर', 'आज का एमएलए रामअवतार' और 'मैं आजाद हूँ'.. राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी इन फिल्मों का आकर्षण इनके अभिनेता रहे हैं। दिलीप कुमार अभिनीत 'लीडर' ऐसी पहली हिंदी फिल्म थी, जिसमें राजनेताओं के निहित स्वार्थ का बेबाकी से चित्रण किया गया था। 'आज का एमएलए रामअवतार' का उद्देश्य राजनेताओं के गिरते स्तर से दर्शकों को रू-ब-रू कराना था। इस फिल्म का नायक राजनेताओं के चिरपरिचित अंदाज को अपनाते हुए एमएलए बनने तक का सफर तय करता है। अमिताभ बच्चन अभिनीत 'मैं आजाद हूँ' में व्यवस्था से जूझते और राजनेताओं की करतूतों से आहत आम नागरिक की झुंझलाहट को दिखाया गया। इस फिल्म का नायक स्वयं को लोकतंत्र के सच्चे रक्षक के रूप में आम जनता के समक्ष पेश करता है, जिसमें उसकी मदद एक पत्रकार करती है।
राजनीतिक गुंडागर्दी से दो -दो हाथ करता नायक
राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में 'किस्सा कुर्सी का' का जिक्र उल्लेखनीय है। 'किस्सा कुर्सी का' में व्यंग्यात्मक लहजे में व्यवस्था की कमियों और तात्कालिक राजनीतिक परिवेश को उभारने का प्रयास किया गया था। अपने कथ्य को लेकर यह फिल्म विवादों में भी रही थी। शशि कपूर अभिनीत 'न्यू देलही टाइम्स' में पत्रकार के नजरिए से राजनीतिक हालात की टोह लेने की कोशिश की गयी, तो 'प्रतिघात' में क्षेत्रीय राजनीति के विभिन्न पहलुओं को उभारा गया। ई निवास निर्देशित 'शूल' में बिहार में व्याप्त राजनीतिक गुंडागर्दी से दो-दो हाथ करते ईमानदार पुलिस अधिकारी के संघर्ष को दिखाया गया। हालांकि अनिल कपूर अभिनीत 'नायक' की पटकथा कल्पना से परे लगती है, पर यह फिल्म सही मायने में राजनेताओं की लापरवाही और जिम्मेदारियों से भागने की फितरत को दर्शाती है। 'नायक' का नायक बताता है कि किस तरह सरकार को जिम्मेदारी और प्रभावी तरीके से काम करना चाहिए, जिससे अनुशासन भी बना रहे और जनता की खुशियां भी बरकरार रहें।
सत्ता से जुड़ी हजारों ख्वाहिशें ऐसी
दिग्गज फिल्मकार गोविंद निहलानी निर्देशित 'आघात' में केंद्रीय राजनीति के गंभीर पहलुओं पर पैनी नजर पेश की गयी। गोविंद निहलानी की तरह ही गुणात्मक सिनेमा के निर्देशन में रूचि रखने वाले मधुर भंडारकर की वास्तविकता से सरोकार रखने वाली फिल्मों की सूची में एक फिल्म ऐसी भी रही है, जिसने राजनेताओं की पोल खोलकर रख दी थी। इस फिल्म का नाम था 'सत्ता'। इसमें राजनीतिक गतिविधियों के पीछे छिपे सच को जनता के समक्ष लाने का प्रयास किया गया था। मधुर भंडारकर के समकालीन निर्देशक मणिरत्‍‌नम ने 'युवा' में छात्र-राजनीति को अपने नजरिए से पेश करने का प्रयास किया। 'युवा' में यदि राजनीति, अपराध और छात्र-आंदोलन का ताना-बाना बुना गया, तो युवा फिल्मकार तिग्मांशू धुलिया निर्देशित 'हासिल' में उत्तर प्रदेश की छात्र-राजनीति का वास्तविक चित्रण किया गया। राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में सबसे अनूठी है, 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी'। यह फिल्म राजनीति से अधिक राजनीतिक विचारधारा पर केंद्रित थी। पूंजीवादी और समाजवादी विचार धारा के पक्षधर केंद्रीय पात्रों के नजरिए से फिल्म की कहानी को पेश किया गया।
....और अब गुलाल
'जैसे बिना बात अफगानिस्तान में जम गए अंकल सैम'...हालिया प्रदर्शित 'गुलाल' के गीत की इन पंक्तियों से ही इस फिल्म के राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़े होने का अहसास हो जाता है। हालांकि 'गुलाल' की कहानी राजस्थान की छात्र-राजनीति के इर्द-गिर्द केंद्रित है, पर इस फिल्म के कई दृश्यों में अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय राजनीति पर व्यंग्यात्मक कटाक्ष भी किए गए हैं। युवा निर्देशक अनुराग कश्यप की इस प्रयोगात्मक फिल्म को मिल रही दर्शकों की प्रशंसा ने संकेत दे दिया है कि भारतीय दर्शक राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रख रहे हैं।

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