जब व्यक्ति विशेष की जीवन-गाथा किसी फिल्म विशेष में सिमट जाती है तो वह बायोपिक कहलाती है। बायोपिक में व्यक्ति-विशेष के जीवन के हर पहलू को बारीकी से चित्रित किया जाता है। उसके जीवन के उत्थान-पतन की कहानी कही जाती है। ऐसी कहानी हिंदी फिल्मों में कभी-कभी ही कही गयी है। यदि हिंदी फिल्मों की सूची पर नज़र डालें तो कुछ ही ऐसी फिल्में हैं जिन्हें 'बायोपिक' की संज्ञा दी जा सकती है। इसकी वजह बायोपिक के निर्माण और निर्देशन में पेश होने वाली चुनौतियां हैं। दरअसल,बायोपिक हिंदी फिल्मों के बंधे-बंधाये ढांचे में फिट नहीं हो पाती हैं। हिंदी फिल्मों के पारंपरिक नायकों की लार्जर दैन लाइफ छवि से बायोपिक के रियल लाइफ नायक का तालमेल नहीं बैठ पाता है। निर्माता-निर्देशक फार्मूला फिल्मों से हटकर कुछ नया और चुनौतीपूर्ण करने के प्रयास से बचना चाहते हैं। साथ ही,किसी व्यक्ति विशेष के जीवन से जुड़े तथ्यों की पूर्ण जानकारी नहीं होने के कारण फिल्म की रिलीज़ के बाद होने वाले विवादों और लांछनों से बचने के लिए भी वे बायोपिक के निर्माण का जोखिम नहीं उठाते हैं। इन सभी कठिनाइयों और चुनौतियों से जूझते हुए कुछ ऐसे विरले फिल्म निर्माता-निर्देशक हैं जिन्होंने बायोपिक के निर्माण का प्रयास किया और वे सफल भी रहें। दर्शकों ने उनके प्रयास को सकारात्मक प्रतिक्रिया दी.....फिर वह 'भाग मिल्खा भाग' हो या, 'द डर्टी पिक्चर' हो या 'गुरु' हो या 'पान सिंह तोमर' या फिर 'बैंडिट क्वीन'।
बायोपिक से पड़ी नींव .
रोचक है कि भारतीय फिल्मों के सफ़र की शुरुआत ही बायोपिक से हुई थी। पहली फिल्म 'राजा हरिश्चन्द्र' में सूर्य वंश के प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र की प्रेरणादायी कहानी कही गयी थी। इस फिल्म ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की नींव रखी थी। हिंदी फिल्मों के शैशव काल में कई और बायोपिक फ़िल्मे बनीं जिसमे वास्तविकता के साथ कल्पना का भी पुट था। निर्माता-निर्देशक और अभिनेता सोहराब मोदी ने इस दौर में 'पुकार','झाँसी की रानी','मिर्ज़ा ग़ालिब' और 'सिकंदर' जैसी बायोपिक बनायी। 'पुकार' में जहाँगीर के जीवन का वर्णन था,तो 'झाँसी की रानी' में रानी लक्ष्मीबाई के साहस और त्याग की गाथा कही गयी। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में मशहूर शायर ग़ालिब के जीवन पर प्रकाश डाला गया तो 'सिकंदर' में यूनानी शाषक सिकंदर के प्रभावशाली व्यक्तित्व को चित्रित किया गया। उस दौर में 'संत तुकाराम' जैसी बायोपिक फिल्म भी बनी जिसमें सत्रहवी सदी के संत तुकाराम के व्यक्तित्व को जीवंत किया गया। यहाँ,वी शांताराम की ' डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी' का जिक्र जरुरी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान चीन में अपनी स्वस्थ्य सेवा देने वाले डॉक्टर कोटनिस की रोचक कहानी दर्शाती इस फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया था। गुरुदत्त की दो यादगार फिल्मों 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल' को भी बायोपिक की श्रेणी में कई विशेषज्ञों ने शामिल किया है। निजी जीवन में शायर साहिर लुधियानवी के दर्द को दर्शकों से परिचित कराया 'प्यासा' ने,तो 'कागज़ के फूल' में गुरुदत्त के जीवन के अनछुए पहलू को चित्रित किया गया था। राज कपूर की महत्वाकांक्षी फिल्म 'मेरा नाम जोकर' को भी आंशिक बायोपिक की श्रेणी में विशेषज्ञों ने शामिल किया है।
स्क्रीन पर उभरे भगत सिंह
हिंदी फिल्म निर्माताओं को जिस शख्सियत ने बायोपिक बनाने के लिए सबसे अधिक प्रेरित किया है . . .वह है भगत सिंह। भगत सिंह के जीवन से जुड़े तथ्यों से परिचित कराने के उद्देश्य से आधा दर्जन हिंदी फ़िल्में सिनेमाघरों का रुख कर चुकी हैं। 1954 में 'शहीद - ए - आज़ाद भगत सिंह',1963 में 'शहीद भगत सिंह',1966 में 'शहीद',2002 में 'शहीद-ए-आज़म','23 मार्च 1931 : शहीद' और 'द लिजेंड ऑफ़ भगत सिंह' ने भगत सिंह की वीरगाथा को दर्शकों तक संप्रेषित किया। सिल्वर स्क्रीन पर दिल्ली की एकमात्र महिला सुल्तान रज़िया सुल्तान की कहानी को भी दर्शकों ने हेमामालिनी और धर्मेन्द्र अभिनीत 'रज़िया सुल्तान' में देखा। महात्मा गाँधी के जीवन का इमानदार चित्रण करने वाली 'गाँधी' भी उल्लेखनीय है। हालाँकि,रिचर्ड एदेंबेर्ग अबिनीत और निर्मित यह बायोपिक भारतीय फिल्म नहीं थी,पर इसके हिंदी संस्करण की घरेलू सफलता ने बायोपिक फिल्मों के प्रति हिंदी भाषी दर्शकों के सकारात्मक नजरिये की तरफ ध्यानाकर्षण किया।
'बैंडिट क्वीन' ने दिखाई राह
हिंदी फिल्मों में बायोपिक के नए दौर की शुरुआत 'बैंडिट क्वीन' की सफलता के बाद हुई। शेखर कपूर ने 'बैंडिट क्वीन' में दस्यु सुंदरी फूलन देवी के विवादित और रोचक व्यक्तित्व को चित्रित करने की चुनौती स्वीकार की। शेखर कपूर की यह महत्वकांक्षी फिल्म दर्शकों की कसौटी पर खरी उतरी। साथ ही विश्व सिनेमा जगत का भी इस भारतीय बायोपिक की तरफ ध्यानाकर्षण हुआ। शेखर कहते हैं,' मुझे बायोपिक बनाना लगता है। बायोपिक में किसी रोचक इंसान के जीवन को दिखाने का अवसर मिलता है। मैं जब बायोपिक बनता हूं तो मेरा मकसद मौजूदा समाज में उसकी प्रासंगिकता तय करना होता है। मुझे लगता है कि बायोपिक नजरिये की बात होती है। यह काफी हद तक लेखन पर निर्भर करता है।'
मौलिकता बनी प्राथमिकता
बैंडिट क्वीन' की सफलता के बाद बायोपिक में कल्पना से अधिक मौलिकता को महत्व दिया जाने लगा। निर्माता-निर्देशक बायोपिक की स्वीकार्यता के लिए रिसर्च पर ध्यान देने लगे। जनसंचार माध्यमों की सक्रियता के कारण किसी व्यक्ति विशेष के जीवन को पर्दे पर उभारने के लिए सावधानी बरतनी जरुरी हो गयी। परिणामस्वरुप 'मंगल पाण्डेय: द राइजिंग' जैसी फिल्म बनी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले सिपाही मंगल पांडे के संघर्ष की कहानी चित्रित करने वाली इस फिल्म के निर्माण में चार वर्ष लगें। चार वर्ष प्रदर्शित हुई आमिर खान अभिनीत यह बायोपिक दर्शकों का दिल नहीं जीत पायी। मंगल पाण्डेय की जीवन गाथा पर बनी फिल्म दर्शकों को नहीं भायी, तो उद्योगपति धीरुभाई अम्बानी के जीवन पर आधारित 'गुरु' को दर्शकों ने सर आँखों पर बिठाया। मणिरत्नम निर्देशित 'गुरु' में धीरुभाई अम्बानी की भूमिका ने अभिषेक बच्चन के करिअर को नयी दिशा दी,तो हौकी खिलाडी मीर रंजन नेगी के संघर्ष को प्रकाश में लाने वाली फिल्म 'चक दे इंडिया' ने शाहरुख़ खान को समर्थ अभिनेता के रूप में स्थापित किया। पिछले दशक में बनने वाली बायोपिक में 'गाँधी माय फादर','रंग रसिया' और 'बोस द फॉरगॉटन हीरो' उल्लेखनीय है। 'गाँधी माय फादर' में महात्मा गाँधी के पुत्र हरिलाल पर आधारित थी ,तो श्याम बेनेगल निर्देशित 'बोस द फॉरगॉटन हीरो' ने सुभाष चन्द्र बोस के जीवन के कई ऐसे तथ्यों से दर्शकों को परिचित कराया जिससे वे अब तक अनजान थे। केतन मेहता की 'रंग रसिया' में प्रसिद्द चित्रकार राज रवि वर्मा की जीवनी को दर्शकों तक पहुँचाने का प्रयास किया गया था।
दर्शकों का मिला साथ
दक्षिण भारतीय फिल्मों की विवादित और चर्चित अभिनेत्री सिल्क स्मिता के संघर्ष,दर्द और महत्वाकांक्षा का प्रभाशाली चित्रण करने वाली 'द डर्टी पिक्चर' ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए सोपान बनाये। विद्या बालन ने सिल्क स्मिता के रियल लाइफ चरित्र को कुछ यूं निभाया कि सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के सभी पुरस्कार उनकी झोली में गिर गए।' द डर्टी पिक्चर' की सफलता और स्वीकार्यता ने बायोपिक फिल्मों के निर्माण को नयी राह दिखाई है। तभी तो तिग्मांशु धुलिया की फिल्म 'पान सिंह तोमर' को भी दर्शकों के दिल में जगह मिल गयी। धावक से डकैत बनने के लिए मजबूर पानसिंह तोमर की वास्तविक और संवेदनशील कहानी का कुछ ऐसा असर हुआ कि पान सिंह तोमर की भूमिका में अभिनय का रंग भरने वाले इरफ़ान खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।वहीं..'भाग मिल्खा भाग' की व्यावसायिक सफलता ने बायोपिक फिल्मों के निर्माण को नयी गति दी है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित और फरहान अख्तर अभिनीत 'भाग मिल्खा भाग' में जिस संवेदनशीलता और गंभीरता से फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह के जीवन को चित्रित किया गया,वह अतुल्य है। किसी जीवित व्यक्ति के जीवन को उसकी सहमति से स्क्रीन पर उकेरना बड़ी जिम्मेदारी होती है। इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाकर लेखक प्रसून जोशी,निर्देशक राकेश ओमप्रकाश महरा और अभिनेता फरहान अख्तर ने 'भाग मिल्खा भाग' की सफलता और प्रशंसा सुनिश्चित की। निश्चित रूप से ' भाग मिल्खा भाग' हिंदी सिनेमा की कालजयी बायोपिक फिल्मों में शुमार हो गयी है।
सुनहरा है भविष्य
बायोपिक के सुनहरे भविष्य की बानगी निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही बायोपिक फिल्मों की सूची से मिलती है। इस सूची में पहला नाम बॉक्सिंग की महिला विश्व चैंपियन मैरी कोम पर आधारित फिल्म का है। इस बहुचर्चित बायोपिक के के निर्माण की बागडोर संजय लीला भंशाली ने संभाली है और मैरी कोम की भूमिका निभाने की जिम्मेदारी प्रियंका चोपड़ा को सौंपी गयी है। संजय कहते हैं,'मैरी कौम की कहानी ने मेरे दिल को छुया है। किसी जीवित व्यक्ति पर बहुत कम बायोपिक फिल्म बनी है।मैरी कौम पर आधारित इस फिल्म का निर्माण मेरे लिए एक अनूठा प्रयोग है।' भारतीयों के सबसे प्रिय खेल क्रिकेट के मशहूर सितारे अजहरुद्दीन के जीवन को सिल्वर स्क्रीन पर उकेरने की जिम्मेदारी का ननिर्वहन करने के लिए एकता कपूर ने खुद को तैयार कर लिया है। अभी एकता अपनी इस महत्वाकांक्षी फिल्म के कलाकरों के चयन में व्यस्त हैं। उधर . . अनुराग बसु ने किशोर कुमार के रोचक व्यक्तित्व से जुड़े हर पहलू को अपनी नयी फिल्म में उभारने का निर्णय किया है। किशोर कुमार पर आधारित और रणबीर कपूर अभिनीत इस फिल्म के विषय में अनुराग कहते हैं,'मैं किशोर कुमार के पूरे जीवन को अपनी फिल्म में कवर करना चाहता हूं। उनकी चार शादियों और विशेषकर मधुबाला के साथ उनके रिश्ते को भी अपनी फिल्म में दिखाना चाहता हूं।' खेल जगत और फिल्म जगत के साथ-साथ राजनीति की भी एक प्रभावशाली शख्सियत का जीवन सिल्वर स्क्रीन पर चित्रित किया जायेगा। बात हो रही है प्रियदर्शिनी इंदिरा गाँधी की। इंदिरा गाँधी पर आधारित बायोपिक में विद्या बालन संभवतः शीर्ष भूमिका निभाती हुई नजर आयेंगी। हमेशा कुछ अनूठा करने वाले अनुराग कश्यप की भी योजना एक बायोपिक बनाने की है। हिंदी सिनेमा में नए दृष्टिकोण के वाहक अनुराग ने प्रख्यात गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह के जीवन को अपनी नयी फिल्म के विषय के रूप में चुना है। सभवतः बायोपिक के प्रति यह उत्साह दर्शकों की उन्नत रूचि का असर है। उम्मीद है..बायोपिक फिल्मों के निर्माण के प्रति यह उत्साह बरकरार रहेगा और यूं ही सिल्वर स्क्रीन पर दर्शकों को सच का सामना करने के अवसर मिलते रहेंगे....।
बायोपिक से पड़ी नींव .
रोचक है कि भारतीय फिल्मों के सफ़र की शुरुआत ही बायोपिक से हुई थी। पहली फिल्म 'राजा हरिश्चन्द्र' में सूर्य वंश के प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र की प्रेरणादायी कहानी कही गयी थी। इस फिल्म ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की नींव रखी थी। हिंदी फिल्मों के शैशव काल में कई और बायोपिक फ़िल्मे बनीं जिसमे वास्तविकता के साथ कल्पना का भी पुट था। निर्माता-निर्देशक और अभिनेता सोहराब मोदी ने इस दौर में 'पुकार','झाँसी की रानी','मिर्ज़ा ग़ालिब' और 'सिकंदर' जैसी बायोपिक बनायी। 'पुकार' में जहाँगीर के जीवन का वर्णन था,तो 'झाँसी की रानी' में रानी लक्ष्मीबाई के साहस और त्याग की गाथा कही गयी। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में मशहूर शायर ग़ालिब के जीवन पर प्रकाश डाला गया तो 'सिकंदर' में यूनानी शाषक सिकंदर के प्रभावशाली व्यक्तित्व को चित्रित किया गया। उस दौर में 'संत तुकाराम' जैसी बायोपिक फिल्म भी बनी जिसमें सत्रहवी सदी के संत तुकाराम के व्यक्तित्व को जीवंत किया गया। यहाँ,वी शांताराम की ' डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी' का जिक्र जरुरी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान चीन में अपनी स्वस्थ्य सेवा देने वाले डॉक्टर कोटनिस की रोचक कहानी दर्शाती इस फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया था। गुरुदत्त की दो यादगार फिल्मों 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल' को भी बायोपिक की श्रेणी में कई विशेषज्ञों ने शामिल किया है। निजी जीवन में शायर साहिर लुधियानवी के दर्द को दर्शकों से परिचित कराया 'प्यासा' ने,तो 'कागज़ के फूल' में गुरुदत्त के जीवन के अनछुए पहलू को चित्रित किया गया था। राज कपूर की महत्वाकांक्षी फिल्म 'मेरा नाम जोकर' को भी आंशिक बायोपिक की श्रेणी में विशेषज्ञों ने शामिल किया है।
स्क्रीन पर उभरे भगत सिंह
हिंदी फिल्म निर्माताओं को जिस शख्सियत ने बायोपिक बनाने के लिए सबसे अधिक प्रेरित किया है . . .वह है भगत सिंह। भगत सिंह के जीवन से जुड़े तथ्यों से परिचित कराने के उद्देश्य से आधा दर्जन हिंदी फ़िल्में सिनेमाघरों का रुख कर चुकी हैं। 1954 में 'शहीद - ए - आज़ाद भगत सिंह',1963 में 'शहीद भगत सिंह',1966 में 'शहीद',2002 में 'शहीद-ए-आज़म','23 मार्च 1931 : शहीद' और 'द लिजेंड ऑफ़ भगत सिंह' ने भगत सिंह की वीरगाथा को दर्शकों तक संप्रेषित किया। सिल्वर स्क्रीन पर दिल्ली की एकमात्र महिला सुल्तान रज़िया सुल्तान की कहानी को भी दर्शकों ने हेमामालिनी और धर्मेन्द्र अभिनीत 'रज़िया सुल्तान' में देखा। महात्मा गाँधी के जीवन का इमानदार चित्रण करने वाली 'गाँधी' भी उल्लेखनीय है। हालाँकि,रिचर्ड एदेंबेर्ग अबिनीत और निर्मित यह बायोपिक भारतीय फिल्म नहीं थी,पर इसके हिंदी संस्करण की घरेलू सफलता ने बायोपिक फिल्मों के प्रति हिंदी भाषी दर्शकों के सकारात्मक नजरिये की तरफ ध्यानाकर्षण किया।
'बैंडिट क्वीन' ने दिखाई राह
हिंदी फिल्मों में बायोपिक के नए दौर की शुरुआत 'बैंडिट क्वीन' की सफलता के बाद हुई। शेखर कपूर ने 'बैंडिट क्वीन' में दस्यु सुंदरी फूलन देवी के विवादित और रोचक व्यक्तित्व को चित्रित करने की चुनौती स्वीकार की। शेखर कपूर की यह महत्वकांक्षी फिल्म दर्शकों की कसौटी पर खरी उतरी। साथ ही विश्व सिनेमा जगत का भी इस भारतीय बायोपिक की तरफ ध्यानाकर्षण हुआ। शेखर कहते हैं,' मुझे बायोपिक बनाना लगता है। बायोपिक में किसी रोचक इंसान के जीवन को दिखाने का अवसर मिलता है। मैं जब बायोपिक बनता हूं तो मेरा मकसद मौजूदा समाज में उसकी प्रासंगिकता तय करना होता है। मुझे लगता है कि बायोपिक नजरिये की बात होती है। यह काफी हद तक लेखन पर निर्भर करता है।'
मौलिकता बनी प्राथमिकता
बैंडिट क्वीन' की सफलता के बाद बायोपिक में कल्पना से अधिक मौलिकता को महत्व दिया जाने लगा। निर्माता-निर्देशक बायोपिक की स्वीकार्यता के लिए रिसर्च पर ध्यान देने लगे। जनसंचार माध्यमों की सक्रियता के कारण किसी व्यक्ति विशेष के जीवन को पर्दे पर उभारने के लिए सावधानी बरतनी जरुरी हो गयी। परिणामस्वरुप 'मंगल पाण्डेय: द राइजिंग' जैसी फिल्म बनी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले सिपाही मंगल पांडे के संघर्ष की कहानी चित्रित करने वाली इस फिल्म के निर्माण में चार वर्ष लगें। चार वर्ष प्रदर्शित हुई आमिर खान अभिनीत यह बायोपिक दर्शकों का दिल नहीं जीत पायी। मंगल पाण्डेय की जीवन गाथा पर बनी फिल्म दर्शकों को नहीं भायी, तो उद्योगपति धीरुभाई अम्बानी के जीवन पर आधारित 'गुरु' को दर्शकों ने सर आँखों पर बिठाया। मणिरत्नम निर्देशित 'गुरु' में धीरुभाई अम्बानी की भूमिका ने अभिषेक बच्चन के करिअर को नयी दिशा दी,तो हौकी खिलाडी मीर रंजन नेगी के संघर्ष को प्रकाश में लाने वाली फिल्म 'चक दे इंडिया' ने शाहरुख़ खान को समर्थ अभिनेता के रूप में स्थापित किया। पिछले दशक में बनने वाली बायोपिक में 'गाँधी माय फादर','रंग रसिया' और 'बोस द फॉरगॉटन हीरो' उल्लेखनीय है। 'गाँधी माय फादर' में महात्मा गाँधी के पुत्र हरिलाल पर आधारित थी ,तो श्याम बेनेगल निर्देशित 'बोस द फॉरगॉटन हीरो' ने सुभाष चन्द्र बोस के जीवन के कई ऐसे तथ्यों से दर्शकों को परिचित कराया जिससे वे अब तक अनजान थे। केतन मेहता की 'रंग रसिया' में प्रसिद्द चित्रकार राज रवि वर्मा की जीवनी को दर्शकों तक पहुँचाने का प्रयास किया गया था।
दर्शकों का मिला साथ
दक्षिण भारतीय फिल्मों की विवादित और चर्चित अभिनेत्री सिल्क स्मिता के संघर्ष,दर्द और महत्वाकांक्षा का प्रभाशाली चित्रण करने वाली 'द डर्टी पिक्चर' ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए सोपान बनाये। विद्या बालन ने सिल्क स्मिता के रियल लाइफ चरित्र को कुछ यूं निभाया कि सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के सभी पुरस्कार उनकी झोली में गिर गए।' द डर्टी पिक्चर' की सफलता और स्वीकार्यता ने बायोपिक फिल्मों के निर्माण को नयी राह दिखाई है। तभी तो तिग्मांशु धुलिया की फिल्म 'पान सिंह तोमर' को भी दर्शकों के दिल में जगह मिल गयी। धावक से डकैत बनने के लिए मजबूर पानसिंह तोमर की वास्तविक और संवेदनशील कहानी का कुछ ऐसा असर हुआ कि पान सिंह तोमर की भूमिका में अभिनय का रंग भरने वाले इरफ़ान खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।वहीं..'भाग मिल्खा भाग' की व्यावसायिक सफलता ने बायोपिक फिल्मों के निर्माण को नयी गति दी है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित और फरहान अख्तर अभिनीत 'भाग मिल्खा भाग' में जिस संवेदनशीलता और गंभीरता से फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह के जीवन को चित्रित किया गया,वह अतुल्य है। किसी जीवित व्यक्ति के जीवन को उसकी सहमति से स्क्रीन पर उकेरना बड़ी जिम्मेदारी होती है। इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाकर लेखक प्रसून जोशी,निर्देशक राकेश ओमप्रकाश महरा और अभिनेता फरहान अख्तर ने 'भाग मिल्खा भाग' की सफलता और प्रशंसा सुनिश्चित की। निश्चित रूप से ' भाग मिल्खा भाग' हिंदी सिनेमा की कालजयी बायोपिक फिल्मों में शुमार हो गयी है।
सुनहरा है भविष्य
बायोपिक के सुनहरे भविष्य की बानगी निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही बायोपिक फिल्मों की सूची से मिलती है। इस सूची में पहला नाम बॉक्सिंग की महिला विश्व चैंपियन मैरी कोम पर आधारित फिल्म का है। इस बहुचर्चित बायोपिक के के निर्माण की बागडोर संजय लीला भंशाली ने संभाली है और मैरी कोम की भूमिका निभाने की जिम्मेदारी प्रियंका चोपड़ा को सौंपी गयी है। संजय कहते हैं,'मैरी कौम की कहानी ने मेरे दिल को छुया है। किसी जीवित व्यक्ति पर बहुत कम बायोपिक फिल्म बनी है।मैरी कौम पर आधारित इस फिल्म का निर्माण मेरे लिए एक अनूठा प्रयोग है।' भारतीयों के सबसे प्रिय खेल क्रिकेट के मशहूर सितारे अजहरुद्दीन के जीवन को सिल्वर स्क्रीन पर उकेरने की जिम्मेदारी का ननिर्वहन करने के लिए एकता कपूर ने खुद को तैयार कर लिया है। अभी एकता अपनी इस महत्वाकांक्षी फिल्म के कलाकरों के चयन में व्यस्त हैं। उधर . . अनुराग बसु ने किशोर कुमार के रोचक व्यक्तित्व से जुड़े हर पहलू को अपनी नयी फिल्म में उभारने का निर्णय किया है। किशोर कुमार पर आधारित और रणबीर कपूर अभिनीत इस फिल्म के विषय में अनुराग कहते हैं,'मैं किशोर कुमार के पूरे जीवन को अपनी फिल्म में कवर करना चाहता हूं। उनकी चार शादियों और विशेषकर मधुबाला के साथ उनके रिश्ते को भी अपनी फिल्म में दिखाना चाहता हूं।' खेल जगत और फिल्म जगत के साथ-साथ राजनीति की भी एक प्रभावशाली शख्सियत का जीवन सिल्वर स्क्रीन पर चित्रित किया जायेगा। बात हो रही है प्रियदर्शिनी इंदिरा गाँधी की। इंदिरा गाँधी पर आधारित बायोपिक में विद्या बालन संभवतः शीर्ष भूमिका निभाती हुई नजर आयेंगी। हमेशा कुछ अनूठा करने वाले अनुराग कश्यप की भी योजना एक बायोपिक बनाने की है। हिंदी सिनेमा में नए दृष्टिकोण के वाहक अनुराग ने प्रख्यात गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह के जीवन को अपनी नयी फिल्म के विषय के रूप में चुना है। सभवतः बायोपिक के प्रति यह उत्साह दर्शकों की उन्नत रूचि का असर है। उम्मीद है..बायोपिक फिल्मों के निर्माण के प्रति यह उत्साह बरकरार रहेगा और यूं ही सिल्वर स्क्रीन पर दर्शकों को सच का सामना करने के अवसर मिलते रहेंगे....।
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