Showing posts with label पिंक. Show all posts
Showing posts with label पिंक. Show all posts

Monday, February 27, 2017

कानून के फ़िल्मी हाथ

-सौम्या अपराजिता
'कानून के हाथ लंबे होते हैं'...मगर जब हमारी फिल्मों में कानून के इन लंबे हाथों को जज और वकील थामने की कोशिश करते हैं,तो कानूनी दांव-पेंच से भरपूर नाटकीय दृश्यों और संवादों की लड़ी-सी लग जाती है। दरअसल,हिंदी फिल्मों में जज के हथौड़े की धमक और वकीलों की बहस हमेशा से बेहद प्रभावी अंदाज में प्रयोग किये जाते रहे हैं। 'जॉली एल एल बी 2' इसका ताज़ा उदहारण है। फ़िल्म में कोर्ट रूम ड्रामा के रीयलिस्टिक अप्रोच को दर्शक बेहद पसंद कर रहे हैं। साथ ही वकील जगदीश्वर मिश्रा बने अक्षय कुमार के कानूनी दांव पेंच के मनोरंजक अंदाज को भी प्रशंसा मिल रही है। अगर कहें कि सुभाष कपूर निर्देशित इस फ़िल्म की सफलता में हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय फार्मूले 'कोर्ट रूम ड्रामा' का का योगदान उल्लेखनीय है,तो गलत नहीं होगा। उल्लेखनीय है कि जब-जब कोर्ट रूम ड्रामा के दृश्यों की प्राथमिकता वाली फ़िल्में सिनेमाघरों में आई हैं,दर्शकों की उस फ़िल्म विशेष के प्रति उत्सुकता बढ़ी है।
यदि बीते वर्ष की ही बात करें तो दो सफल फ़िल्मों की कहानी 'रुस्तम' और 'पिंक' अदालती तेवर और कानूनी दांव-पेंच के इर्द-गिर्द बुनी गयी थीं। 'रूस्तम' एक ऐसे नौसेना अधिकारी की कहानी थी जिसे खुद को कोर्ट के सामने बेगुनाह पेश करना होता है। ...तो दूसरी तरफ 'पिंक' पूरी तरह कोर्ट ड्रामा पर आधारित थी जिसमें अमिताभ बच्चन ने ऐसे वकील की भूमिका निभायी थी जो झूठे केस में तीन लड़कियों को बचाता है। इन दोनों ही फिल्मों को दर्शकों ने सर-आँखों पर बिठाया। दरअसल,आम दर्शकों में 'कोर्ट','कचहरी' और 'जज के हथौड़े' का प्रकोप इतना है कि वह इनसे दूर ही रहना चाहता है। रियल लाइफ में इनसे दूर रहने की इच्छा ही फिल्मों में इनके प्रति दर्शकों का रुझान बढ़ाती है। दर्शक रियल लाइफ में तो कोर्ट-कचहरी के चक्कर से दूर रहना चाहते हैं,मगर सिल्वर स्क्रीन पर उन्हें यही कोर्ट रूम ड्रामा बेहद पसंद आता है। रुस्तम के निर्देशक टीनू सुरेश के अनुसार,'कोर्ट के अंदर चलने वाली बहस, वकीलों के तर्क, गवाहों की चालाकी और जज की पैनी नज़र दर्शकों में दिलचस्पी पैदा कर देती है। साथ ही,जब कठघरे में ख़ुद हीरो खड़ा होकर अपनी पैरवी कर रहा हो, तो भला कौन उसे हारता देखना चाहेगा?'
यदि गौर करें तो बीते कुछ वर्षों में कोर्ट रूम ड्रामा वाली फिल्मों ने दर्शकों को खूब रिझाया है जिनमें 'जॉली एलएलबी','शाहिद' और 'ओ माय गॉड' उल्लेखनीय हैं। 'जॉली एलएलबी' में अदालत की गंभीर कार्यवाही को हल्के-फुल्के तरीके से दिखाने की कोशिश की गई,तो 'शाहिद' शाहिद आजमी की जिंदगी पर बनी थी जो देश के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है। कुछ साल जेल में बिताने के बाद वह बाहर निकलकर कानून की पढ़ाई करता है और उन लोगों की मदद करता है जिनपर आतंकवाद के झूठे आरोप लगे थे। उधर 'ओ माय गॉड' में भगवान को ही अदालत में लाकर खड़ा कर दिया गया था। सबूतों और दलीलों की कसौटी पर कसी इस फ़िल्म ने दर्शकों को अपने मोहपाश में बांध लिया था। एक दशक पूर्व प्रदर्शित हुई 'ऐतराज' के भी अधिकांश दृश्य कोर्ट रूम में फिल्माए गए थे। अक्षय कुमार, करीना कपूर और प्रियंका चोपड़ा अभिनीत इस फ़िल्म में बेबुनियाद आरोपों से पति को बचाने के लिए एक पत्नी का वकील के किरदार में आना दर्शकों को पसंद आया था।
भारतीय न्याय व्यवस्था से आम नागरिकों की शिकायत को बयां करता 'दामिनी' के लोकप्रिय संवाद 'तारीख़ पे तारीख' को भला कौन भूल सकता है! इस फ़िल्म में क़ानून की सुस्त रफ़्तार और अदालती कार्यवाहियों को लेकर आक्रोश को सही मायनों में सामने रखा गया था। उस दौर में इस फ़िल्म के पूर्व आयी कई फिल्मों की कहानियां कानून और अदालत के इर्द-गिर्द बुनी गयी थीं जिनमें 'मेरी जंग','आज का अंधा क़ानून', 'फ़र्ज़ और क़ानून', 'क़ानून अपना-अपना', 'क़ानून क्या करेगा', 'क़ायदा-क़ानून' और 'कुदरत का क़ानून' जैसी फ़िल्में आयीं जिनमे 'मेरी जंग' सफल रही जबकि शेष फिल्मों को लचर पटकथा के कारण बॉक्स ऑफिस की सफलता से हाथ धोना पड़ा।
दरअसल,हिंदी फिल्मों में कानूनी दांव-पेंच वाले दृश्यों को बी आर चोपड़ा की फ़िल्म 'कानून' के प्रदर्शन के बाद से प्राथमिकता मिलनी शुरू हुई। इस फ़िल्म के बाद तो जैसे निर्माता-निर्देशकों की नजर में अदालत के दृश्य अवश्यम्भावी से हो गए। उसके बाद तो दर्शकों को हर दूसरी-तीसरी फ़िल्म में अदालत में वकीलों की ज़िरह वाले दृश्यों को देखने की आदत-सी हो गयी। रोचक तथ्य है कि अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी अभिनीत 'अँधा कानून' की सफलता के बाद 'कानून' और 'अदालत' जैसे शब्द फिल्मों के दृश्यों के साथ-साथ उसके शीर्षक में भी शामिल हो गए।
यदि कहें कि न्याय व्यवस्था के प्रति आम जनता के असंतोष और आक्रोश के चित्रण के कारण ही कोर्ट रूम ड्रामा वाली फ़िल्में दर्शकों को भाती हैं,तो गलत नहीं होगा। 'अदालत' और 'कानून' के दांव-पेंच से संघर्ष करते फ़िल्मी नायक में दर्शक अपनी छवि देखते हैं और जब वही नायक तमाम संघर्षों से दो-चार होता हुआ न्याय की मंजिल पाता है,तो उसकी जीत में दर्शक अपनी जीत महसूस करते हैं। दरअसल,रील लाइफ में 'कानून' का डर ही रियल लाइफ के 'कानूनी दांव-पेंच' की ओर दर्शकों को आकर्षित करता है।
सिल्वर स्क्रीन पर 'कोर्ट रूम ड्रामा'
*जॉली एलएलबी
*रुस्तम
*पिंक
*शाहिद
*दामिनी
*ऐतराज
*ओ माय गॉड
*कानून
*अंधा कानून